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#1_अक्तूबर #संगत_के_सेवादार_सरदार_चिरंजीव_सिंह_जी_का_जन्म_दिवस

पंजाब भारत की खड्गधारी भुजा है। पंजाबियों ने सर्वत्र अपनी योग्यता और पौरुष का लोहा मनवाया है; पर एक समय ऐसा भी आया, जब कुछ सिख समूह अलग खालिस्तान का राग गाने लगे। इस माहौल को संभालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन कर इसकी जिम्मेदारी वरिष्ठ प्रचारक श्री चिरंजीव सिंह को दी।  चिरंजीव जी का जन्म एक अक्तूबर, 1930 (आश्विन शु. 9) को पटियाला में एक किसान श्री हरकरण दास (तरलोचन सिंह) तथा श्रीमती द्वारकी देवी (जोगेन्दर कौर) के घर में हुआ। मां सरकारी विद्यालय में पढ़ाती थीं। उनसे पहले दो भाई और भी थे; पर वे बचे नहीं। मंदिर और गुरुद्वारों में पूजा के बाद जन्मे इस बालक का नाम मां ने चिरंजीव रखा। 1952 में उन्होंने राजकीय विद्यालय, पटियाला से बी.ए. किया। वे बचपन से ही सब धर्म और पंथों के संतों के पास बैठते थे।   1944 में कक्षा सात में पढ़ते समय वे अपने मित्र रवि के साथ पहली बार शाखा गये। वहां के खेल, अनुशासन, प्रार्थना और नाम के साथ ‘जी’ लगाने से वे बहुत प्रभावित हुए। शाखा में वे अकेले सिख थे। 1946 में वे प्राथमिक वर्ग और फिर 1947, 50 और 52 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर

#1_अक्तूबर #भारत_भक्त_विदेशी_महिला_डा_एनी_बेसेंट_जन्म_दिवस

डा. एनी वुड बेसेंट का जन्म एक अक्तूबर, 1847 को लंदन में हुआ था। इनके पिता अंग्रेज तथा माता आयरिश थीं। जब ये पांच वर्ष की थीं, तब इनके पिता का देहांत हो गया। अतः इनकी मां ने इन्हें मिस मेरियट के संरक्षण में हैरो भेज दिया। उनके साथ वे जर्मनी और फ्रांस गयीं और वहां की भाषाएं सीखीं। 17 वर्ष की अवस्था में वे फिर से मां के पास आ गयीं। 1867 में इनका विवाह एक पादरी रेवरेण्ड फ्रेंक से हुआ। वह संकुचित विचारों का था। अतः दो संतानों के बाद ही तलाक हो गया। ब्रिटिश कानून के अनुसार दोनों बच्चे पिता पर ही रहे। इससे इनके दिल को ठेस लगी। उन्होंने मां से बच्चों को अलग करने वाले कानून की निन्दा करते हुए अपना शेष जीवन निर्धन और अनाथों की सेवा में लगाने का निश्चय किया। इस घटना से इनका विश्वास ईश्वर, बाइबिल और ईसाई मजहब से भी उठ गया। श्रीमती एनी बेसेंट इसके बाद लेखन और प्रकाशन से जुड़ गयीं। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए अथक प्रयत्न किये। आंदोलन करने वाले मजदूरों के उत्पीड़न को देखकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इन काले कानूनों का विरोध किया। वे कई वर्ष तक इंग्लैंड

#30_सितम्बर #महान_गोभक्त_लाला_हरदेवसहाय_जी_की_पुण्यतिथि

गोरक्षा आन्दोलन के सेनापति लाला हरदेवसहाय जी का जन्म 26 नवम्बर, 1892 को ग्राम सातरोड़ (जिला हिसार, हरियाणा) में एक बड़े साहूकार लाला मुसद्दीलाल के घर हुआ था। संस्कृत प्रेमी होने के कारण उन्होंने बचपन में ही वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रन्थ पढ़ डाले थे। उन्होंने स्वदेशी व्रत धारण किया था। अतः आजीवन हाथ से बुने सूती वस्त्र ही पहने। लाला जी पर श्री मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक तथा स्वामी श्रद्धानंद का विशेष प्रभाव पड़ा। वे अपनी मातृभाषा में शिक्षा के पक्षधर थे। अतः उन्होंने ‘विद्या प्रचारिणी सभा’ की स्थापना कर 64 गांवों में विद्यालय खुलवाए तथा हिन्दी व संस्कृत का प्रचार-प्रसार किया। 1921 में तथा फिर 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में वे सत्याग्रह कर जेल गये।  लाला जी के मन में निर्धनों के प्रति बहुत करुणा थी। उनके पूर्वजों ने स्थानीय किसानों को लाखों रुपया कर्ज दिया था। हजारों एकड़ भूमि उनके पास बंधक थी। लाला जी वह सारा कर्ज माफ कर उन बहियों को ही नष्ट कर दिया, जिससे भविष्य में उनका कोई वंशज भी इसकी दावेदारी न कर सके। भाखड़ा नहर निर्माण के लिए हुए आंदोलन में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। 193

#30_सितम्बर #कर्नाटक_में_हिन्दी_के_सेवक_विद्याधर_गुरुजी_का_जन्मदिवस

यों तो भारत में देववाणी संस्कृत के गर्भ से जन्मी सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं, फिर भी सबसे अधिक बोली और समझी जाने के कारण हिन्दी को भारत की सम्पर्क भाषा कहा जाता है। भारत की एकता में हिन्दी के इस महत्व को अहिन्दी भाषी प्रान्तों में भी अनेक मनीषियों ने पहचाना और विरोध के बावजूद इसकी सेवा, शिक्षण व संवर्धन में अपना जीवन खपा दिया। ऐसे ही एक मनीषी हैं श्री विद्याधर गुरुजी। उनका जन्म ग्राम गुरमिठकल (गुलबर्गा, कर्नाटक) में 30 सितम्बर, 1914 को एक मडिवाल (धोबी) परिवार में हुआ था। यद्यपि आर्थिक स्थिति सुधरने से इनके पिता एवं चाचा अनाज का व्यापार करने लगे थे; पर परिवार की महिलाएँ दूसरों के कपड़े ही धोती थीं। ऐसे अशिक्षित, लेकिन संस्कारवान परिवार में विद्याधर का बचपन बीता। 1931 में जब भगतसिंह को फाँसी हुई, तो विद्याधर कक्षा सात में पढ़ते थे। उन्होंने अपने साथियों के साथ गाँव में जुलूस निकाला। इस पर उन्हें पाठशाला से निकाल दिया गया। 1938 में जब आर्य समाज ने निजामशाही के विरुद्ध आन्दोलन किया, तो इन्होंने उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इससे निजाम शासन ने इनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया। आर्य नेता श्री

#30_सितम्बर #माधवराव_मुले_जी_की_पुण्यतिथि

( आजादी से पूर्व पंजाब क्षेत्र में संघ कार्य का विस्तार करने वाले एवं विभाजन के समय पंजाब से विस्थापित हिंदुओं की रक्षा करने वाले) 7 नवम्बर, 1912 (कार्तिक कृष्ण 13, धनतेरस) को ग्राम ओझरखोल (जिला रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में जन्मे माधवराव कोण्डोपन्त मुले प्राथमिक शिक्षा पूरी कर आगे पढ़ने के लिए 1923 में बड़ी बहन के पास नागपुर आ गये थे।  यहाँं उनका सम्पर्क संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। मैट्रिक के बाद इन्होंने डिग्री कालिज में प्रवेश लिया; पर क्रान्तिकारियों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी। इसी बीच पिताजी का देहान्त होने से घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी इन पर आ गयी। अतः इन्होंने टायर ट्यूब मरम्मत का काम सीखकर चिपलूण में यह कार्य किया; पर घाटा होने से उसे बन्द करना पड़ा। इस बीच डा. हेडगेवार से परामर्श करने ये नागपुर आये। डा. जी इन्हें अपने साथ प्रवास पर ले गये। इस प्रवास के दौरान डा. जी के विचारों ने माधवराव के जीवन की दिशा बदल दी। चिपलूण आकर माधवराव ने दुकान किराये पर उठा दी और स्वयं पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। 1937 में निजाम हैदराबाद के विरुद्ध हुए सत्याग्रह तथा 1938 में पुणे में

#30_सितम्बर #प्रखर_देशभक्त_सूफी_अम्बाप्रसाद_जी_की_पुण्यतिथि

  सूफी अम्बाप्रसाद का जन्म 1858 में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ था। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता, तो वे हंसकर कहते कि 1857 के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद, बरेली और जालंधर में उन्होंने शिक्षा पायी। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत के बदले ‘जाम्मुल अमूल’ नामक समाचार पत्र निकाला। उनके विचार पढ़कर नवयुवकों में जागृति की लहर दौड़ने लगी। सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर बुद्धिमान भी बहुत थे। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकारी जनता को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर वहां गये और उसके घर में झाड़ू-पोंछे की नौकरी कर ली। कुछ ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाचार के विस्तृत समाचार देश और विदेश में छपने लगे। अतः उसका स्थानांतरण कर दिया गया। बौखलाकर उसने घोषणा की कि जो भी इस समाचारों को छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार देंगे। यह सुनकर सूफी जी सूट-बूट पहनकर पुरस्कार के लिए उसके सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर वह चौंक गया। सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए

।।052।। बोधकथा। 🌺💐*मंत्र क्यों सिद्ध नहीं होते !*💐🌺

माधवाचार्य गायत्री के घोर उपासक थे। वृंदावन मे उन्होंने तेरह वर्ष तक गायत्री के समस्त अनुष्ठान विधिपूर्वक किये। लेकिन उन्हे इससे न भौतिक, न आध्यायत्मिकता  लाभ दिखा। वो निराश हो कर काशी गये। वहां उन्हें एक अवधूत मिला जिसने उन्हें एक वर्ष तक काल भैरव की उपासना करने को कहा। उन्होंने एक वर्ष से अधिक ही कालभैरव की आराधना की। एक दिन उन्होंने आवाज सुनी "मै प्रसन्न हूं वरदान मांगो"। उन्हें लगा कि ये उनका भ्रम है। क्योंकि सिर्फ आवाज सुनायी दे रही थी कोइ दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने सुना अनसुना कर दिया। लेकिन वही आवाज फिर से उन्हें तीन बार सुनायी दी। तब माधवाचार्य जी ने कहा- आप सामने आ कर अपना परिचय दे मै अभी काल भैरव की उपासना मे व्यस्त हूं। सामने से आवाज आयी "तूं जिसकी उपासना कर रहा है वो मै ही काल भैरव हूँ"। माधवाचार्य जी ने कहा "तो फिर सामने क्यो नहीं आते?" काल भैरव जी ने कहा "माधवा  तुमने तेरह साल तक जिन गायत्री मंत्रों का अखंड जाप किया है। उसका तेज तुम्हारे सर्वत्र चारो ओर व्याप्त है। मनुष्य रूप मै उसे मै सहन नहीं कर सकता, इसीलिए सामने नहीं आ सकता हूँ।&

#29_सितम्बर #स्वतन्त्रता_सेनानी_मातंगिनी_हाजरा_जी_के_बलिदानदिवस

भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी कदम से कदम मिलाकर संघर्ष किया था। मातंगिनी हाजरा एक ऐसी ही बलिदानी माँ थीं, जिन्होंने अपनी अशिक्षा, वृद्धावस्था तथा निर्धनता को इस संघर्ष में आड़े नहीं आने दिया।  मातंगिनी का जन्म 1870 में ग्राम होगला, जिला मिदनापुर, पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया; पर दुर्भाग्य उनके पीछे पड़ा था। छह वर्ष बाद वह निःसन्तान विधवा हो गयीं। पति की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगी। गाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं। 1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस

#28_सितम्बर #स्वर_सम्राज्ञी_लता_मंगेशकर_जी_का_जन्म_दिवस

  अपने सुरीले स्वर में 20 से भी अधिक भाषाओं में 50,000 से भी अधिक गीत गाकर ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में नाम लिखा चुकीं स्वर सम्राज्ञी लता मंगेषकर को कौन नहीं जानता ? लता मंगेशकर का जन्म 28 सितम्बर, 1929 को इन्दौर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर मराठी रंगमंच से जुडे़ हुए थे। पाँच वर्ष की छोटी अवस्था में ही लता ने अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय प्रारम्भ कर दिया और उनसे ही संगीत की शिक्षा भी लेने लगीं। जब लता केवल 13 वर्ष की थीं, तब उनके सिर से पिता का वरद हस्त उठ गया। सबसे बड़ी होने के कारण पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेवारी उन पर आ गयी। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सपरिवार मुम्बई आ गयीं। पैसे के लिए उन्हें न चाहते हुए भी फिल्मों में अभिनय करना पड़ा; पर वे तो केवल गाना चाहती थीं।  काफी प्रयास के बाद उन्हें 1949 में गाने का अवसर मिला। फिल्म ‘महल’ और ‘बरसात’ के गीतों से वे गायिका के रूप में फिल्म जगत में स्थापित हो गयीं। पैसा और प्रसिद्धि पाकर भी लता ने अपने परिवार से मुँह नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने सब छोटे भाई बहिनों को फिल्मी दुनिया में काम दिलाया और

#28_सितम्बर #हिन्दी_भाषा_के_दधीचि_पंडित_श्रीनारायण_चतुर्वेदी_जी_का_जन्म_दिवस

  हिंदी माता की सेवा में अपना जीवन सर्वस्व अर्पित कर देने वाले पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म 28 सितम्बर, 1893 को इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बचपन से ही उनके मन में हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रति अत्यधिक अनुराग था। यद्यपि वे अंग्रेजी और उर्दू के भी अप्रतिम विद्वान् थे। अंग्रेजी का अध्ययन उन्होंने लन्दन में किया था; पर हिन्दी को भारत की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता के लिए आवश्यक मानकर उसे राजभाषा का स्थान प्रदान कराने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। वे अंग्रेजी काल में उत्तर प्रदेश में शिक्षा प्रसार अधिकारी थे। एक बार तत्कालीन प्रदेश सचिव ने उन्हें यह आदेश जारी करने को कहा कि भविष्य में हिन्दी रोमन लिपि के माध्यम से पढ़ायी जाएगी। इस पर वे उससे भिड़ गये। उन्होंने साफ कह दिया कि चाहे आप मुझे बर्खास्त कर दें; पर मैं यह आदेश नहीं दूँगा। इस पर वह अंग्रेज अधिकारी चुप हो गया। उनके इस साहसी व्यवहार से देवनागरी लिपि की हत्या होने से बच गयी। अवकाश प्राप्ति के बाद दुर्लभ पुस्तकों के प्रकाशन हेतु उन्होंने अपनी जीवन भर की बचत 25,000 रु. लगाकर ‘हिन्दी वांगमय निधि’ की स्थापना की। वे 20

#28_सितम्बर #इन्कलाब_जिन्दाबाद_के_उद्घोषक_भगतसिंह_जी_का_जन्मदिवस

क्रान्तिवीर भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, (जिला लायलपुर, पंजाब) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय पूर्व ही उसके पिता किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह जेल से छूटे थे। अतः उसे भागों वाला अर्थात भाग्यवान माना गया। घर में हर समय स्वाधीनता आन्दोलन की चर्चा होती रहती थी। इसका प्रभाव भगतसिंह के मन पर गहराई से पड़ा।  13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में क्रूर पुलिस अधिकारी डायर ने गोली चलाकर हजारों नागरिकों को मार डाला। यह सुनकर बालक भगतसिंह वहाँ गया और खून में सनी मिट्टी को एक बोतल में भर लाया। वह प्रतिदिन उसकी पूजा कर उसे माथे से लगाता था।  भगतसिंह का विचार था कि धूर्त अंग्रेज अहिंसक आन्दोलन से नहीं भागेंगे। अतः उन्होंने आयरलैण्ड, इटली, रूस आदि के क्रान्तिकारी आन्दोलनों का गहन अध्ययन किया। वे भारत में भी ऐसा ही संगठन खड़ा करना चाहते थे। विवाह का दबाव पड़ने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कानपुर में स्वतन्त्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम करने लगे।  कुछ समय बाद वे लाहौर पहुँच गये और ‘नौजवान भारत सभा’ बनायी। भगतसिंह ने कई स्थानों का प्रवास भी किया।

#27_सितम्बर #देशभक्तिपूर्ण_गीतों_के_गायक_महेन्द्र_कपूर_जी_की_पुण्यतिथि

फिल्म जगत में देशभक्तिपूर्ण गीतों की बात चलने पर महेन्द्र कपूर का धीर-गंभीर स्वर ध्यान में आता है। यों तो उन्होंने लगभग सभी रंग के गीत गाये; पर उन्हें प्रसिद्धि देशप्रेम और धार्मिक गीतों से ही मिली। महेन्द्र कपूर का जन्म नौ जनवरी, 1934 को अमृतसर में हुआ था। जब वे एक महीने के थे, तब उनके पिता मुंबई आकर कपड़े का कारोबार करने लगे थे। महेन्द्र कपूर घर और विद्यालय में प्रायः गाते रहते थे।  1953 में उन्हें पहली बार ‘मदमस्त’ नामक फिल्म में गाने का अवसर मिला। इससे उनकी पहचान बनने लगी। एक बार उन्हें एक गायन प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला। उसमें नौशाद जैसे दिग्गज संगीतकार निर्णायक थे। महेन्द्र कपूर ने अपनी प्रतिभा के बल पर वहां प्रथम स्थान पाया। नौशाद ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी एक फिल्म में गाने का अवसर दे दिया। इसके बाद फिर महेन्द्र कपूर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन दिनों मोहम्मद रफी, तलत महमूद, सी.एच.आत्मा, हेमंत कुमार, मुकेश, किशोर कुमार जैसे बड़े गायकों से ही सब निर्माता अपनी फिल्म में गीत गवाना चाहते थे। नया गायक होने के कारण उनके बीच में स्थान बनाना आसान नहीं था; पर महेन्द्र कपूर न

#27_सितम्बर #हिन्दू_जागरण_के_सूत्रधार_अशोक_सिंहल_जी_का_जन्म_दिवस

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी; पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे।  उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ। सात भाई और एक बहिन में वे चौथे स्थान पर थे। मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था। उनके पिता श्री महावीर जी शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे।  घर में संन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया। उन्होंने अशोक जी की मां विद्यावती जी को संघ की प्रार्थना सुनायी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी।  1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता पाने की खुशी मना रहे थे; पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन्हीं में से एक थे। इस माहौल को बदलने हेतु उ

#27_सितम्बर #अमृत_बांटती_मां_अमृतानन्दमयी_जी_का_जन्म_दिवस

आज जिन्हें सम्पूर्ण विश्व में माँ अमृतानन्दमयी के नाम से जाना जाता है, उनका जन्म 27 सितम्बर, 1953 को केरल के समुद्र तट पर स्थित आलप्पाड ग्राम के एक अति निर्धन मछुआरे परिवार में हुआ। वे अपने पिता की चौथी सन्तान हैं। बचपन में उनका नाम सुधामणि था। जब वे कक्षा चार में थीं, तब उनकी माँ बहुत बीमार हो गयीं। उनकी सेवा में सुधामणि का अधिकांश समय बीतता था। अतः उसके बाद की उसकी पढ़ाई छूट गयी। सुधामणि को बचपन से ही ध्यान एवं पूजन में बहुत आनन्द आता था। माँ की सेवा से जो समय शेष बचता, वह इसी में लगता था। पाँच वर्ष की अवस्था से ही वह कृष्ण-कृष्ण बोलने लगी थीं। इस कारण उन्हें मीरा और राधा का अवतार मानकर लोग श्रद्धा व्यक्त करने लगे। माँ के देहान्त के बाद सुधामणि की दशा अजीब हो गयी। वह अचानक खेलते-खेलते योगियों की भाँति ध्यानस्थ हो जाती। लोगों ने समझा कि माँ की मृत्यु का आघात न सहन कर पाने के कारण उसकी मानसिक दशा बिगड़ गयी है। अतः उसे वन में निर्वासित कर दिया गया। पर वन में सुधा ने पशु-पक्षियों को अपना मित्र बना लिया। वे ही उसके खाने पीने की व्यवस्था करते। एक गाय उसे दूध पिला देती, तो पक्षी फल ले आते।

#27_सितम्बर #समाज_सुधारक_राजा_राममोहन_राय_जी_का_जन्म_दिवस

हिंदू समाज में सीता, सावित्री, अनसूया आदि सती-साध्वी स्त्रियों की सदा से पूजा होती रही है। सती का अर्थ है मन, वचन, कर्म से अपने पतिव्रत को समर्पित नारी; पर जब भारत में विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण होने लगे, तो मुख्यतः राजस्थान में क्षत्रिय वीरांगनाओं ने पराजय की स्थिति में शत्रुओं के हाथों में पड़ने की बजाय आत्मदाह कर प्राण देने का मार्ग चुना।  इसके लिए वे एक बड़ी चिता सजाकर सामूहिक रूप से उसमें बैठ जाती थीं। वीर पुरुष भी पीछे नहीं रहते थे। वे सब केसरिया वस्त्र पहनकर, किले के फाटक खोलकर रणभूमि में चले जाते थे। इस प्रथा को ही ‘जौहर’ कहा गया। कुछ नारियाँ अपने वीरगति प्राप्त पति के शव के साथ चिता पर बैठ जाती थीं। इसके लिए भी ‘सती’ शब्द ही रूढ़ हो गया। कुछ और समय बीतने के बाद देश के अनेक भागों (विशेषकर पूर्वांचल) में सती प्रथा का रूप विकृत हो गया। अब हर विधवा अपने पति के शव के साथ चिता पर चढ़ने लगी। कहीं-कहीं तो उसे चिता पर जबरन चढ़ा दिया जाता था। चिता जलने पर ढोल-नगाड़े बजते। सती माता की जय के नारे लगते। इस शोर में उस महिला का रुदन दब जाता। लोग इस कुप्रथा को ही ‘सती प्रथा’ कहकर सम्मानित

।।051।। बोधकथा। 🌺💐🏵अरबपति रतनजी टाटा का टेलीफोन साक्षात्कार - जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली

जब एक टेलीफोन साक्षात्कार में भारतीय *अरबपति रतनजी टाटा* से रेडियो प्रस्तोता ने पूछा: "सर आपको क्या याद है कि आपको जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली"? रतनजी टाटा ने कहा: "मैं जीवन में खुशी के चार चरणों से गुजरा हूं, और आखिरकार मुझे सच्चे सुख का अर्थ समझ में आया।" पहला चरण धन और साधन संचय करना था।  लेकिन इस स्तर पर मुझे वह सुख नहीं मिला जो मैं चाहता था। फिर क़ीमती सामान और वस्तुओं को इकट्ठा करने का दूसरा चरण आया।  लेकिन मैंने महसूस किया कि इस चीज का असर भी अस्थायी होता है और कीमती चीजों की चमक ज्यादा देर तक नहीं रहती। फिर आया बड़ा प्रोजेक्ट मिलने का तीसरा चरण।  वह तब था जब भारत और अफ्रीका में डीजल की आपूर्ति का 95% मेरे पास था। मैं भारत और एशिया में सबसे बड़ा इस्पात कारखाने मालिक भी था।  लेकिन यहां भी मुझे वो खुशी नहीं मिली जिसकी मैंने कल्पना की थी. चौथा चरण वह समय था जब मेरे एक मित्र ने मुझे कुछ विकलांग बच्चों के लिए व्हीलचेयर खरीदने के लिए कहा।  लगभग 200 बच्चे। दोस्त के कहने पर मैंने तुरंत व्हीलचेयर खरीद ली। लेकिन दोस्त ने जिद की कि मैं उसके साथ जाऊं और बच्चों को व्ह

।।050।। बोधकथा। 🌺💐🏵 उदास मत होना 🏵💐🌺

प्रतिवर्ष माता- पिता अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा दादी के घर ले जाते। 10- 20 दिन सब वही रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा।  बालक थोड़ा बड़ा हो गया। एक दिन उसने अपने माता-पिता से कहा कि, अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता हूं। तो आप मुझे अकेले दादी के घर जाने दो।  माता-पिता पहले तो राजी नहीं हुए, परंतु बालक ने जब बहुत जोर दिया, तो उसको सारी सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी गई। जाने का दिना आया। बालक को छोड़ने सब लोग स्टेशन पर गए। ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया। फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की। उसको सारी सावधानियां फिर से समझाईं।  बालक ने कहा कि मुझे सब याद है,आप चिंता मत करो।  ट्रेन को सिग्नल मिला। सीटी बजी, तब पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया, कि बेटा अगर रास्ते में तुझे डर लगे, तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा है उसको पढ़ना।   बालक ने पत्र जेब में रख लिया। माता-पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया। ट्रेन चलने लगी। हर स्टेशन पर लोग आते रहे ,पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई ना कोई था।  अब बालक को अकेलापन लगने लगा।  अगले स्टेशन पर ऐसा व्यक्ति चढ़ा, जिसका चेहरा

।।049।। बोधकथा। 🌺💐 जाने बिनु ना होय परतीती 💐🌺 राम धनुष टूटने की सत्य घटना......

बात 1880 के अक्टूबर नवम्बर की है। बनारस की एक रामलीला मण्डली,रामलीला खेलने तुलसी गांव आयी हुई थी...। मण्डली में 22-24 कलाकार थे, जो गांव के ही एक आदमी के यहाँ रुके थे।वहीं सभी कलाकार रिहर्सल करते और खाना बनाते खाते थे...। पण्डित कृपाराम दुबे उस रामलीला मण्डली के निर्देशक थे और हारमोनियम पर बैठ के मंच संचालन करते थे,और फौजदार शर्मा, साज-सज्जा और राम लीला से जुड़ी अन्य व्यवस्था देखते थे...। एक दिन पूरी मण्डली बैठी थी और रिहर्सल चल रहा था, तभी पण्डित कृपाराम दुबे ने फौजदार से कहा- इस बार वो शिव धनुष हल्की और नरम लकड़ी की बनवाएं, ताकि राम का पात्र निभा रहे 17 साल के युवक को परेशानी न हो, पिछली बार धनुष तोड़ने में समय लग गया था... । .इस बात पर फौजदार कुपित हो गया क्योंकि लीला की साज सज्जा और अन्य व्यवस्था वही देखता था और पिछला धनुष भी वही बनवाया था... । इस बात को लेकर पण्डित जी और फौजदार में कहा सुनी हो गई..। फौजदार पण्डित जी से काफी नाराज था और पंडित जी से बदला लेने की सोच लिया था ...। संयोग से अगले दिन सीता स्वयंवर और शिव धनुष भंग का मंचन होना था...। फौजदार, मण्डली जिसके घर रुकी थी उनके घर

#26_सितम्बर #कर्मयोगी_पंडित_सुन्दरलाल_जी_का_जन्म_दिवस 🇮🇳🚩🙏

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अनेक पक्ष थे। हिंसा और अहिंसा के  साथ कुछ लोग देश तथा विदेश में पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जन जागरण भी कर रहे थे। अंग्रेज इन सबको अपने लिए खतरनाक मानते थे। 26 सितम्बर, 1886 को खतौली (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में सुंदरलाल नामक एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। खतौली में गंगा नहर के किनारे बिजली और सिंचाई विभाग के कर्मचारी रहते हैं। इनके पिता श्री तोताराम श्रीवास्तव उन दिनों वहां उच्च सरकारी पद पर थे। उनके परिवार में प्रायः सभी लोग अच्छी सरकारी नौकरियों में थे। मुजफ्फरनगर से हाईस्कूल करने के बाद सुंदरलाल जी प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर क१लिज में पढ़ने गये। वहां क्रांतिकारियों के सम्पर्क रखने के कारण पुलिस उन पर निगाह रखने लगी। गुप्तचर विभाग ने उन्हें भारत की एक शिक्षित जाति में जन्मा आसाधारण क्षमता का युवक कहा, जो समय पड़ने पर तात्या टोपे और नाना फड़नवीस की तरह खतरनाक हो सकता है। 1907 में वाराणसी के शिवाजी महोत्सव में 22 वर्षीय सुन्दर लाल ने ओजस्वी भाषण दिया। यह समाचार पाकर कॉलेज वालों ने उसे छात्रावास से निकाल दिया। इसके बाद भी उन्होंने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परी

#26_सितम्बर #साहस_शौर्य_और_दानशीलता_की_मूर्ति। #रानी_रासमणि_जी_का_जन्म_दिवस

कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर और उसके पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम प्रसिद्ध है; पर वह मंदिर बनवाने वाली रानी रासमणि को लोग कम ही जानते हैं। रानी का जन्म बंगाल के 24 परगना जिले में गंगा के तट पर बसे ग्राम कोना में हुआ था। उनके पिता श्री हरेकृष्ण दास एक साधारण किसान थे। परिवार का खर्च चलाने के लिए वे खेती के साथ ही जमींदार के पास कुछ काम भी करते थे। उसकी चर्चा से रासमणि को भी प्रशासनिक कामों की जानकारी होने लगी। रात में उनके पिता लोगों को रामायण, भागवत आदि सुनाते थे। इससे रासमणि को भी निर्धनों के सेवा में आनंद मिलने लगा।।     रासमणि जब बहुत छोटी थीं, तभी उनकी मां का निधन हो गया। ऐसे में उनका पालन उनकी बुआ ने किया। तत्कालीन प्रथा के अनुसार 11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह बंगाल के बड़े जमींदार प्रीतम बाबू के पुत्र रामचंद्र दास से हो गया। ऐसे घर में आकर भी रासमणि को अहंकार नहीं हुआ। 1823 की भयानक बाढ़ के समय उन्होंने कई अन्नक्षेत्र खोले तथा आश्रय स्थल बनवाये। इससे उन्हें खूब ख्याति मिली और लोग उन्हें ‘रानी’ कहने लगे। विवाह के कुछ वर्ष बाद उनके पति का निधन हो गया। तब तक वे चार बेटियों की

।।048।। बोधकथा। 🌺💐🏵 आशीर्वाद की कमाई 🏵💐🌺

एक बुज़ुर्ग शिक्षिका भीषण गर्मियों में बस में सवार हुई। वह पैरों के दर्द से बेहाल थी, लेकिन बस में सीट न देख कर जैसे – तैसे खड़ी हो गयी।      अभी बस ने कुछ दूरी ही तय की थी कि एक अधेड़ महिला ने बड़े सम्मानपूर्वक आवाज़ दी, "आ जाइए मैडम, आप यहाँ बैठ जाएं” कहते हुए उसे अपनी सीट पर बैठा दिया। खुद वो गरीब सी महिला बस में खड़ी हो गयी। शिक्षिका ने धन्यवाद और आशीर्वाद दिया,कहा- "बहुत-बहुत धन्यवाद, सच में मेरी बहुत बुरी हालत थी।" ऐसा सुनकर  उस गरीब महिला के चेहरे पर एक संतोष भरी मुस्कान फैल गयी।    कुछ देर बाद शिक्षिका के पास वाली सीट खाली हो गयी, लेकिन उस महिला ने एक और महिला को, जो एक छोटे बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी और मुश्किल से बच्चे को गोद में लिए थी, को सीट पर बिठा दिया।      अगले पड़ाव पर बच्चे के साथ महिला भी उतर गयी।सीट खाली हो गयी परन्तु, सहृदय  महिला ने बैठने का लालच नहीं किया,बल्कि बस में चढ़े एक कमजोर बूढ़े आदमी को बैठा दिया जो अभी - अभी बस में चढ़ा था।       कुछ देर बाद सीट फिर से खाली हो गयी। बस में अब गिनी – चुनी सवारियां ही रह गयी थीं। अब उस अध्यापिका ने महिला

।।047।। बोधकथा। 🌺💐🏵 अपने पराए 🏵💐🌺

फोन की घंटी तो सुनी, मगर आलस की वजह से रजाई में ही लेती रही। आखिर  पति राहुल को ही उठना पड़ा। दूसरे कमरे में पड़े फोन की घंटी बजती ही जा रही थी। इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी नहीं देता। इसी चिड़ चिड़ाहट में उसने फोन उठाया।  तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गई।  "नमस्ते पापा"  बेटा बहुत दिनों से तुम्हें मिले नहीं, तो हम दोनों 11:00 बजे की गाड़ी से आ रहे हैं।  दोपहर का भोजन साथ में ही करेंगे और हम 4:00 बजे की गाड़ी से वापस लौट जाएगे। ठीक है।  हां पापा मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।  फोन रख कर वापस कमरे में आकर उसने रचना को बताया कि, मां-पिताजी 11:00 बजे की गाड़ी से आ रहे हैं,और दोपहर का भोजन हमारे साथ ही करेंगे।  रजाई में घुसी रचना का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। रविवार को भी सोने नहीं देते। सबके लिए भोजन बनाओ, पूरी नौकरानी बना दिया है।  गुस्से से उठी और बाथरूम में घुस गई। राहुल हक्का-बक्का हो सिर्फ देखता ही रह गया।   जब वह बाहर आई तो राहुल ने पूछा- क्या बनाओगी?  गुस्से से भरी रचना ने तुनक कर जवाब दिया, अपने को तल के खिला दूंगी!  राहुल चुप रहा और मुस्कुराता हुआ

#25_सितम्बर #एकात्म_मानववाद_के_प्रणेता_दीनदयाल_उपाध्याय_जी_का_जन्म_दिवस

सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916को जयपुर से 15किमी दूरी पर स्थित ग्राम धानकया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे। दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा दस में उन्होंने सीकर के श्री कल्याण विद्यालय से अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे। 14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्ह

#25_सितम्बर #केरल_में_धर्मरक्षक_स्वामी_सत्यानन्द_सरस्वती_जी_का_जन्म_दिवस

केरल भारत का ऐसा तटवर्ती राज्य है, जहाँ मुसलमान, ईसाई तथा कम्युनिस्ट मिलकर हिन्दू अस्मिता को मिटाने हेतु प्रयासरत हैं। यद्यपि वहाँ के हिन्दुओं में धर्म भावना असीम है; पर संगठन न होने के कारण उन्हें अपमान झेलना पड़ता है। जातिगत भेदभाव की अत्यधिक प्रबलता के कारण एक बार स्वामी विवेकानन्द ने केरल को पागलखाना कहा था। इसके बाद भी अनेक साधु सन्त वहाँ हिन्दू समाज के स्वाभिमान को जगाने में सक्रिय हैं। 25 सितम्बर, 1933 को तिरुअनन्तपुरम् के अण्डुरकोणम् ग्राम में जन्मे स्वामी सत्यानन्द उनमें से ही एक थे। उनका नाम पहले शेखरन् पिल्लै था। शिक्षा पूर्ण कर वे माधव विलासम् हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। 1965 में उनका सम्पर्क रामदास आश्रम से हुआ और फिर वे उसी के होकर रह गये। आगे चलकर उन्होंने संन्यास लिया और उनका नाम स्वामी सत्यानन्द सरस्वती हुआ।  केरल में ‘हिन्दू ऐक्य वेदी’ नामक संगठन के अध्यक्ष के नाते स्वामी जी अपने प्रखर भाषणों से जन जागरण का कार्य सदा करते रहे। 1970 के बाद राज्य में विभिन्न हिन्दू संगठनों को जोड़ने में उनकी भूमिका अति महत्वपूर्ण रही। वे ‘पुण्यभूमि’ नामक दैनिक पत्र के संस्थापक और सम्पादक

#25_सितम्बर #समर्पण_और_निष्ठा_के_प्रतिरूप_के_जनाकृष्णमूर्ति_जी_की_पुण्यतिथि

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा एक ऐसी अद्भुत तथा अनुपम कार्यशाला है, जिससे प्राप्त संस्कारों के कारण व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में रहे, वहीं अपने कार्य और व्यवहार की सुगन्ध छोड़ जाता है।  24 मई, 1928 को मदुरै (तमिलनाडु) के एक अधिवक्ता परिवार में जन्मे श्री के. जनाकृष्णमूर्ति ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने संघ के साधारण स्वयंसेवक से आगे बढ़ते हुए भारतीय जनता पार्टी जैसे विशाल राजनीतिक संगठन के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। प्राथमिक शिक्षा मदुरै में पूरी कर वे चेन्नई आ गये और वहाँ के विधि महाविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे मदुरै में ही वकालत करने लगे। 1940 में मदुरै में संघ का कार्य प्रारम्भ हुआ, तो वे भी शाखा जाने लगे। 1945 में उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर मदुरै में ही नगर प्रचारक बन गये। 1951 के बाद वे फिर वकालत करने लगे। इस दौरान उन पर प्रान्त बौद्धिक प्रमुख का दायित्व भी रहा। जनसंघ की स्थापना के बाद उत्तर भारत में तो वह फैल गया; पर दक्षिण भारत अछूता था। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी की इच्छा पर वे 1965 में जनसंघ से जुड़े और उन्हें तमिलनाडु का

#24_सितम्बर #सरल_सहज_और_विनम्र_डा_कृष्ण_कुमार_बवेजा_जी_का_जन्मदिवस

संघ कार्य करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करने वाले डा. कृष्ण कुमार बवेजा का जन्म हरियाणा राज्य के सोनीपत नगर में 24 सितम्बर, 1949 को हुआ था। उनके पिता श्री हिम्मतराम बवेजा तथा माता श्रीमती भागवंती देवी के संस्कारों के कारण घर में संघ का ही वातावरण था। पांच भाई-बहिनों में वे सबसे बड़े थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही सामान्य थी। पटियाला से गणित में पी-एच.डी. कर, कुछ समय हिन्दू काॅलेज, रोहतक में अध्यापक रहकर, 1980 में लुधियाना महानगर से उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। क्रमशः हरियाणा और पंजाब में अनेक दायित्व निभाते हुए वे दिल्ली में सहप्रांत प्रचारक, हरियाणा के प्रांत प्रचारक और फिर उत्तर क्षेत्र (दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल) के बौद्धिक प्रमुख बने। ‘श्री गुरुजी जन्मशती’ के साहित्य निर्माण की केन्द्रीय टोली में रहते हुए उन्होंने ‘श्री गुरुजी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ नामक पुस्तक लिखी। 2013 में ‘स्वामी विवेकानंद सार्धशती’ आयोजनों में वे उत्तर क्षेत्र के सह संयोजक थे। पतले-दुबले शरीर वाले कृष्ण कुमार जी मन के बहुत पक्के थे। 1975 में चंडीगढ़ में अध्ययन करते समय आपातकाल व

#24_सितम्बर #जनसेवक_पंडित_बच्छराज_व्यास_जी_का_जन्मदिवस

पहले संघ और फिर भारतीय जनसंघ के काम में अपना जीवन खपाने वाले पंडित बच्छराज व्यास का जन्म नागपुर में 24 सितम्बर, 1916 को हुआ था। उनके पिता श्री श्यामलाल मूलतः डीडवाना (राजस्थान) के निवासी थे, जो एक व्यापारिक फर्म में मुनीम होकर नागपुर आये थे। बच्छराज जी एक मेधावी छात्र थे। बी.ए. (ऑनर्स) और फिर एल.एल-बी. कर वे वकालत करने लगे। महाविद्यालय में पढ़ते समय वे अपने समवयस्क श्री बालासाहब देवरस के सम्पर्क में आकर शाखा आने लगे। दोनों का निवास भी निकट ही था। बालासाहब के माध्यम से उनकी भेंट संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। व्यक्ति को पहचाने की कला में माहिर डा. जी ने एक-दो भेंट के बाद बालासाहब से कहा कि यह बड़े काम का आदमी है, इसे पास में रखना चाहिए। बालासाहब ने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाया। बच्छराज जी के घर खानपान में छुआछूत का बहुत विचार होता था। पहली बार शिविर में आने पर डा. जी ने उन्हें अपना भोजन अलग बनाने की अनुमति दे दी। शिविर के बाद बच्छराज जी संघ के काम में खूब रम गये और उनके माध्यम से अनेक मारवाड़ी युवक स्वयंसेवक बने। अगली बार वे सब भी शिविर में आये और उन्होंने अपना भोजन अलग बनाया;