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अगस्त, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।।016।। बोधकथा। 🌺 सत्ता और शक्ति का दुरुपयोग 🌺

 मधु, दैत्य होते हुए भी दयालु, भगवत भक्त, और अहिंसक था। अकूत वैभव का मालिक भी था। उसे अलौकिक शक्ति प्राप्त करने की चाह थी, अतः कठोर तपस्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया और शंकर ने उसे अपना त्रिशूल दे दिया, कहा- "जब तक यह त्रिशूल तुम्हारे हाथ में रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा।"  मधु ने प्रार्थना की, भगवन! यह त्रिशूल सदा हमारे ही वंश में रहे, ऐसा वरदान दीजिए।  शंकर जी बोले, ऐसा नहीं हो सकता। यह अवश्य है कि, यह त्रिशूल तुम्हारे  पुत्र के पास रहेगा।  इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए। मधु प्रसन्न होकर राजधानी लौटा। सुख शांति से अपना राज किया। दूसरों की विपत्ति निवारण, कमजोरों की रक्षा, दुष्टों को दंड, की व्यवस्था की।  उसका एक पुत्र हुआ, नाम था लवणासुर। जो अपने पिता से स्वभाव में विपरीत था। क्रोधी, निर्दयी, पाप परायण,और दुराचारी।  त्रिशूल उसके हाथ में आते ही उसका अत्याचार कई गुना बढ़ गया। प्रजा हाहाकार करने लगी। ऋषि मुनि घबराए।  उसी समय अयोध्या में राजा राम राज्य करते थे। सभी ऋषि-मुनियों ने च्यवन ऋषि की अगुवाई में, अयोध्या पहुंचकर अपनी करुण कथा सुनाई। जिससे रामचंद्र जी

#30 अगस्त# क्रान्तिकारी कनाईलाल दत्त जी के बलिदान दिवस

  इनका जन्म 30 अगस्त 1888 को हुगली में हुआ। 1905 ई. के ‘बंगाल विभाजन’ विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये। बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही कनाईलाल कोलकाता चले गए और प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष के दल में सम्मिलित हो गए और यहाँ वे उसी मकान में रहते थे, जहाँ क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे। अप्रैल, 1908 ई. में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर आक्रमण किया। इस हमले में कनाईलाल दत्त, अरविन्द घोष, बारीन्द्र कुमार आदि पकड़े गये इनके दल का एक युवक नरेन गोस्वामी अंग्रेज़ों का सरकारी मुखबिर बन गया। कनाईलाल दत्त और सत्येन बोस ने नरेन गोस्वामी को जेल के अंदर ही अपनी गोलियों का निशाना बनाने का निश्चय किया। पहले सत्येन बीमार बनकर जेल के अस्पताल में भर्ती हुए, फिर कनाईलाल भी बीमार पड़ गये। सत्येन ने मुखबिर नरेन गोस्वामी के पास संदेश भेजा कि मैं जेल के जीवन से ऊब गया हूँ और तुम्हारी ही तरह सरकारी गवाह बनना चाहता हँ। मेरा एक और साथी हो गया, इस प्रसन्नता

#31 अगस्त# प्रेरक प्रसंग देशद्रोही का वध

स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों ने लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था। बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त,  सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद सत्येन्द्र ने ऐसा प्रदर्शित किया, मानो वह इस जीवन से तंग आकर मुखबिर बनना चाहता है। उसने नरेन्द्र से मिलने

।।015।। बोधकथा। 💐"दर्शन" (दर्शन और देखने में अंतर) 💐

एक दिन मित्र ने कहा : “चलो मंदिर चलते हैं?” मैं : “किसलिए?” मित्र बोला : “दर्शन के लिए!” मैं : “क्यों ! कल ठीक से दर्शन नहीं किया था क्या?” मित्र : “तू भी क्या इन्सान है! दिन भर एक जगह बैठा रहता है। पर थोड़ी देर भगवान के दर्शन करने के लिए नहीं जा सकता।” मैंने कहा : "महाशय! चलने में मुझे कोई समस्या नहीं है। किन्तु आप यह मत कहिये कि दर्शन करने चलेगा क्या? यह कहिये कि देखने चलेगा क्या? मित्र बोला : “किन्तु दोनों का मतलब तो एक ही होता है।” मैं : नहीं! दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। मित्र : “कैसे?” कैसे? यही प्रश्न । अक्सर मैंने देखा है लोग तीर्थ यात्रा पर जाते है किसलिए? भव्य मंदिर और मूर्तियों को देखने के लिए, ना कि दर्शन के लिए।  अब आप सोच रहे होंगे की देखने और दर्शन करने में क्या अंतर है? देखने का मतलब है, सामान्य देखना जो हम दिनभर कुछ ना कुछ देखते रहते हैं। किन्तु दर्शन का अर्थ होता है – जो हम देख रहे है 'उसके पीछे छुपे तथ्य और सत्य को जानना'। देखने से मनोरंजन हो सकता है, परिवर्तन नहीं। किन्तु दर्शन से मनोरंजन हो ना हो लेकिन परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अधिकांश लोग मंदिरों म

।।014।। बोधकथा। 🌺🏵 सच्चे लाभ की साधना 🏵🌺

कंचनपुर नगर के राजा को बहुत तप तपस्या के पश्चात एक परम सुंदरी कन्या उत्पन्न हुई। जब वह विवाह योग्य हुई, तब राजा ने स्वयंवर रचाया। किंतु राजकुमारी ने किसी को भी स्वीकार नहीं किया।  एक दिन रानी ने राजा से कहा- राजन! राजकुमारी का विचार धर्म परायण, परोपकारी, योगी से विवाह करने का है।  वह भोग,  ऐश्वर्य की अपेक्षा, आत्मउन्नति में सहायता करने वाला साथी चाहती है। कष्ट और निर्धनता की उसे जरा भी परवाह नहीं। इसीलिए आप किसी योगी के साथ उसका विवाह कीजिए।   राजा को पहले तो यह प्रस्ताव पसंद ना आया, किंतु जब रानी ने प्राचीन इतिहास बताते हुए पार्वती, सावित्री, सुकन्या, आदि अनेक राजकुमारियों का विवाह योगियों के साथ होने के उदाहरण दिए, तो राजा सहमत हो गए और दूसरे दिन योगी की तलाश में जाने का निश्चय किया।  राजा और रानी में जिस समय यह वार्तालाप हो रहा था, उसी समय एक चोर शयन कक्ष के निकट चोरी के उद्देश्य छिपा हुआ यह सब बातें सुन रहा था। उसने सोचा मैं ही योगी का वेश बनाकर राजा के मार्ग में क्यों ना बैठ जाऊं, जिससे राजकुमारी का पाणिग्रहण तथा राज्य का उत्तराधिकार मुझे ही प्राप्त हो जाए ।  वह तुरंत ही वहां से घ

#30 अगस्त# परिश्रम के अवतार ओमप्रकाशजी का जन्म दिवस

उ.प्र. में संघ विचार के हर काम को मजबूत करने वाले श्री ओमप्रकाशजी का जन्म 30 अगस्त, 1927 को पलवल (हरियाणा) में श्री कन्हैयालालजी तथा श्रीमती गेंदी देवी के घर में हुआ था। उनकी पढ़ाई मुख्यतः मथुरा में हुई। जिला प्रचारक श्री कृष्णचंद्र गांधी के संपर्क में आकर 1944 में वे स्वयंसेवक बने। 1945, 46 और 47 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग तथा पढ़ाई पूर्ण कर 1947 में अलीगढ़ के अतरौली से उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। क्रमशः वे मथुरा नगर (1952), मथुरा जिला (1953-57), बिजनौर जिला (1957-67), बरेली जिला (1967-69) और फिर बरेली विभाग प्रचारक रहे। उन दिनों उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र बरेली विभाग में ही था। 1948 के प्रतिबंध काल में वे अलीगढ़ जेल में रहे। बिजनौर में पूरे जिले का प्रवास वे साइकिल से ही करते थे। उन्होंने साइकिल के हैंडल पर रखकर किताब पढ़ने का अभ्यास भी कर लिया था। चाय और प्याज-लहसुन का उन्होंने कभी सेवन नहीं किया। वे होम्योपैथी तथा आयुर्वेदिक दवाएं ही प्रयोग करते थे।  आपातकाल के दौरान वे बरेली और मुरादाबाद के विभाग प्रचारक थे। वहीं रामपुर जिले के शाहबाद में पुलिस ने उन्हें तत्कालीन प्रां

#30 अगस्त# प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र शंकरदास केसरीलाल

 (जन्म: 30 अगस्त, 1923 रावलपिंडी (पाकिस्तान) - मृत्यु: 14 दिसंबर 1966 मुंबई) शत शत नमन करते है आरंभिक जीवन शैलेन्द्र जी के पिताजी फ़ौज में थे। बिहार के रहने वाले थे। पिता के रिटायर होने पर मथुरामें रहे, वहीं शिक्षा पायी। घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था लेकिन शैलेन्द्र की रुचि घर से कुछ भिन्न ही रही। हाईस्कूल से ही राष्ट्रीय ख़याल थे। सन 1942 में बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने गये। अगस्त आंदोलन में जेल भी गये। लेकिन कविता का शौक़ बना रहा। बाल्यकाल किसी ज़माने में मथुरा रेलवे कर्मचारियों की कॉलोनी रही धौली प्याऊ की गली में गंगासिंह के उस छोटे से मकान की पहचान सिर्फ बाबूलाल को है जिसमें शैलेन्द्र अपने भाईयों के साथ रहते थे। सभी भाई रेलवे में थे। बड़े भाई बी.डी. राव, शैलेन्द्र को पढ़ा-लिखा रहे थे। बाबू लाल के अनुसार, मथुरा के 'राजकीय इंटर कॉलेज' में हाईस्कूल में शैलेन्द्र ने पूरे उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया। वह बात 1939 की है। तब वे 16 साल के थे। के.आर. इंटर कॉलेज में आयोजित अंताक्षरी प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे और खूब ईनाम जीतते थे। इसके बाद श

।।013।। बोध कथा। 🌺🏵 संगठन और लक्ष्मी 🏵🌺

 सेठ जी के ऊपर लक्ष्मी की बहुत कृपा थी, कोई कमी नहीं थी। चार सुंदर बेटे थे। उनका विवाह धूमधाम से हुआ। बहूएँ अपने साथ खूब दान दहेज लाईं।सेठ- सेठानी प्रसन्नता से फूले न समाते थे।  किंतु समय का चक्र बड़ा प्रबल है, आज जहां आनंद है, कल वहां दुख हो सकता है। जहां बाग हैं, कल वहां मरघट हो सकता है।  सेठ जी के साथ भी यही हुआ। चारों बहुओं में मनमुटाव बढ़ने लगा।  "सम्मिलित रहने का एक ही सिद्धांत है कि, हर मनुष्य अपने सुख की अपेक्षा दूसरे का अधिक ध्यान रखें," किंतु जहां'आपापूति' शुरू हो जाती है,अपने लिए अधिक लेने और दूसरे को कम देने की प्रवृत्ति चल पड़ती है, वहां सांझा नहीं चल सकता। एक ना एक दिन कलह और विद्रोह जरूर पनप उठेगा।  बहुओं में भी हर एक अपने लिए अधिक सुख चाहती और दूसरों की उपेक्षा करती थी। फलस्वरुप घर में लड़ाई के बीज बढ़ने लगे।  स्त्रियों के मनमुटाव की छाया पुरुषों पर भी पड़ी, वे एक दूसरे से असंतुष्ट रहने लगे। चारों में मनमुटाव होने लगा।  जहां कार्यकर्ताओं के चित्त में उद्विग्नता है, वहां कार्य ठीक प्रकार पूरा नहीं हो सकता, और व्यापारी के काम अधूरे पड़े रहते हैं।  जैसे-ज

।।013।। बोधकथा। 🌺 बंधनों में बांधती है आसक्ति 🌺

वीतराग, है सर्व त्यागी, और निष्काम 'ऋषि भरत' इतने निश्चल और निर्विकार रहते थे कि,लोगों ने उपहास में उन्हें जड़ कहना आरंभ कर दिया। जड़ शब्द,  लोक व्यवहार में इतना प्रचलित हुआ कि, उनके मूल नाम से जुड़ कर उन्हें 'जड़ भरत' ही कहा जाने लगा। लोग उन्हें कुछ भी कहते, मान या अपमान, निंदा या प्रशंसा, इसकी उन्हें ना कोई अपेक्षा रहती, ना ही चिंता। सरल इतने, कि लोग उन्हें मूर्ख समझ कर रोटी के बदले कोई भी बेगार करने को कहते, तो वह भी अविचल भाव से कर लेते।  एक दिन की घटना है। सिंधु सौवीर प्रदेश के राजा 'रहूगण' महर्षि कपिल का सत्संग करने के लिए पालकी पर बैठकर जा रहे थे।  संयोग से उसी समय जड़ भरत विचरण करते दिखाई दिए। वेशभूषा से उन्हें महर्षि तो क्या, कोई ब्राह्मण भी नहीं समझ सकता था। शरीर से बलवान और मुद्रा से प्रशन्न,  सरल भरत को भारवाहकों ने कोई चरवाहा समझा और उन्हें पकड़कर सौवीर नरेश की पालकी उठाने में, बीमार साथी के स्थान पर लगा दिया। स्वभाव से ही ना करना नहीं जानने वाले महर्षि भरत ने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया और रुग्ण व्यक्ति के स्थान पर स्वयं जुट गए।  उन्हें इस कार्य

#29 अगस्त विशेष#बाल उपवन के सुमन द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की पुण्यतिथि

अच्छे और कालजयी साहित्य की रचना एक कठिन कार्य है; पर इससे भी कठिन है, बाल साहित्य का सृजन। इसके लिए स्वयं बच्चों जैसा मन और मस्तिष्क बनाना होता है। श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ऐसे ही एक साहित्यकार थे, जिनके लिखे गीत एक समय हर बच्चे की जिह्ना पर रहते थे। श्री माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर, 1916 को आगरा (उ.प्र.) के रौहता गाँव में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे अत्यन्त मेधावी थे। अतः पढ़ने में सदा आगे ही रहते थे; पर बच्चों के लिए लिखे जाने वाले गद्य और पद्य साहित्य में कठिन शब्दों और भावों को देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती थी। इस कारण बच्चे उन गीतों को याद नहीं कर पाते थे। उनका मत था कि यदि बच्चों को अच्छे और सरल भावपूर्ण गीत दिये जायें, तो वे गन्दे फिल्मी गीत नहीं गायेंगे। अतः उन्होंने स्वयं ही इस क्षेत्र में उतरकर श्रेष्ठ साहित्य के सृजन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का बड़ा चाव था। पढ़ने के लिए वे इंग्लैण्ड भी गये; पर आजीविका के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा क्षेत्र को चुना। अनेक महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए वे शिक्षा निदेशक और निदेशक साक्षरता निकेतन जैसे पदों पर पहु

#29 अगस्त विशेष# हॉकी के जादूगर ध्यानचन्द जी का जन्मदिवस

एक समय था, जब भारतीय हॉकी का पूरे विश्व में दबदबा था। उसका श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे; पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये। वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे। चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य

27 अगस्त #उत्कृष्टता के पुजारी अजीत कुमार जी का जन्म दिवस

कुछ लोग बनी-बनायी लीक पर चलना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अपनी कल्पनाशीलता से काम में नये आयाम भी जोड़ते हैं। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री अजीत जी दूसरी श्रेणी के कार्यकर्ता थे। उनका जन्म 27 अगस्त, 1934 को कर्नाटक के जिला गुडीवंडेयवर में कोलार नामक स्थान पर हुआ था। श्रीमती पुट्टताईम्म तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी श्री ब्रह्मसुरय्य की आठ संतानों में से केवल तीन जीवित रहे। इनमें अजीत जी भी थे। प्राथमिक शिक्षा ननिहाल में पूरी कर वे पिताजी के साथ बंगलौर आ गये। यहां उनका संघ से सम्पर्क हुआ। कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से वे बहुत प्रभावित थे। अभियन्ता की शिक्षा प्राप्त करते समय वे 'अ.भा.विद्यार्थी परिषद' में भी सक्रिय रहे। अपनी कक्षा में सदा प्रथम श्रेणी पाने वाले अजीत जी ने इलैक्ट्रिक एवं मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री स्वर्ण पदक सहित प्राप्त की। उनकी रुचि खेलने, परिश्रम करने तथा साहसिक कार्यों में थी। नानी के घर में कुएं से 100 बाल्टी पानी वे अकेले निकाल देते थे। एक शिविर में उन्होंने 1,752 दंड-बैठक लगाकर पुरस्कार पाया था।  1957 में शिवगंगा में आयोजित एक वन-विहार कार्यक्रम में उन्

28 अगस्त विशेष #प्रथम प्रचारक #बाबासाहब आप्टे जी का जन्मदिवस

28 अगस्त, 1903 को यवतमाल, महाराष्ट्र के एक निर्धन परिवार में जन्मे उमाकान्त केशव आप्टे का प्रारम्भिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में बीता। 16 वर्ष की छोटी अवस्था में पिता का देहान्त होने से परिवार की सारी जिम्मेदारी इन पर ही आ गयी। इन्हें पुस्तक पढ़ने का बहुत शौक था। आठ वर्ष की अवस्था में इनके मामा ‘ईसप की कथाएँ’ नामक पुस्तक लेकर आये। उमाकान्त देर रात तक उसे पढ़ता रहा। केवल चार घण्टे सोकर उसने फिर पढ़ना शुरू कर दिया। मामा जी अगले दिन वापस जाने वाले थे। अतः उमाकान्त खाना-पीना भूलकर पढ़ने में लगे रहे। खाने के लिए माँ के बुलाने पर भी वह नहीं आया, तो पिताजी छड़ी लेकर आ गये। इस पर उमाकान्त अपनी पीठ उघाड़कर बैठ गया। बोला - आप चाहे जितना मार लें; पर इसेे पढ़े बिना मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा।उसके हठ के सामने सबको झुकना पड़ा। छात्र जीवन में वे लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। एक बार तिलक जी रेल से उधर से गुजरने वाले थे। प्रधानाचार्य नहीं चाहते थे कि विद्यार्थी उनके दर्शन करने जाएँ। अतः उन्होंने फाटक बन्द करा दिया। विद्यालय का समय समाप्त होने पर उमाकान्त ने जाना चाहा; पर अध्यापक ने जाने नहीं दिया।

।।012।। बोध कथा। 🌺 नास्तिक से आस्तिक कैसे बना! 🌺

मुंबई के करोड़पति सेठ धन गोपाल तन्ना। उनके माता पिता धार्मिक वैष्णव और पत्नी भी आस्तिक और परम श्रद्धालु थी, परंतु कॉलेज की शिक्षा के प्रभाव से सेठ धन गोपाल नास्तिक थे,और धर्म तथा ईश्वर को ढकोसला मानते थे। उनका विश्वास था कि पुरुषार्थ से सब हो सकता है।  नास्तिक होते हुए किसी प्रकार का अवैधानिक कर्म भी वे नहीं करते थे।  सेठानी के आग्रह पर एक दिन एक साधु घर पर पधारे। सभ्यता के नाते धन गोपाल जी ने आदर दिया,  पूछा गुरुजी कैसे हैं? महात्मा जी ने उत्तर दिया- भगवान की दया है बेटा।  सेठ ने का भगवान होते हैं? मुझे कभी मिले नहीं,अन्यथा में कुछ बातें करता।  महात्मा जी ने कहा- बेटा भगवान दयालु है, उसकी कृपा सब के ऊपर होती है,यदि तुम्हारी भावना होगी, तो अवश्य मिलेंगे। वह तो सर्वत्र कई रूपों में विद्यमान है।  तो क्या भगवान बहुरूपिया है?सेठ बोले। बेटा तुझे तो हंसी सूझती है, पर मेरी बात सुन। भगवान तीन रूप में दर्शन देते हैं-सर्जक, पोषक,और संहारक। अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, और रुद्र, यह तीन उनके रूप हैं। जो उनको सर्जन और पोषक रूप में देखने को तैयार नहीं होते, उनको वे संहारक के रूप में ही दर्शन देते हैं। दय

||011|| बोध कथा | गुरू जी लेते हैं आपने शिष्य की परीक्षा

 गुरू जी लेते हैं आपने शिष्य  की परीक्षा परिणाम घोषित करते चयन प्रक्रिया शुरू कर फिर देते हैं दीक्षा________________ शिष्य__गुरु अपने शिष्य से पूछता तुम कौन सा व्यापार करना चाहते हो पहले तुम क्या करते थे शिष्य बोलता है कि गुरु जी मैं पहले पशु व्यापार करता था एक पशु को खरीद कर दूसरे मेले में जाकर बेचता था अभी ऊंटों का व्यापार चल रहा है मुझे एक मेले से ऊंट खरीद कर दूसरे मेले में बेचता हूं  मुझे उसका अच्छा धन प्राप्त होता है मुझे आशीर्वाद दें मेरा व्यापार दुगना उत्साह गति से मैं व्यापार कर सकूं पिछली बार गुरुजी मेरे व्यापार में बहुत नुकसान गया था कृपया आशीर्वाद आप मुझे प्रदान करें कि मेरा व्यापार सही मार्गदर्शन में चलता रहे गुरुजी ने कहा मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं ईमानदारी और खुद्दारी से अपना व्यापार करें आगे ईश्वर की मर्जी यह कहकर व्यापारी चला गया व्यापारी व्यापार करने जब गया मेले मेंएक सौदागर को बाजार में घूमते हुए एक उम्दा नस्ल का ऊंट दिखाई पड़ा। सौदागर और ऊंट बेचने वाले के बीच काफी लंबी सौदेबाजी हुई और आखिर में सौदागर वो ऊंट खरीदकर घर ले आया। घर पहुंचने पर सौदागर ने अपने नौकर को ऊं

।।011।। बोधकथा। *जैसी भावना वैसी मनोकामना*

एक बार *गौतम बुद्ध* एक शहर में प्रवचन दे रहे थे। उन्होंने प्रवचन के बाद आखिर में कहा, *'जागो! समय हाथ से निकला जा रहा है*।'इस तरह उस दिन की प्रवचन सभा समाप्त हो गई। सभा के बाद तथागत ने अपने शिष्य आनंद से कहा, थोड़ी दूर घूम कर आते हैं। आनंद, गौतम बुद्ध के साथ चल दिए। अभी वे विहार के मुख्य द्वार तक ही पहुंचे ही थे कि एक किनारे रुक कर खड़े हो गये। प्रवचन सुनने आये लोग एबाहर निकल रहे थे, इसलिए भीड़ का माहौल था, लेकिन उसमें से निकल कर *एक स्त्री तथागत से मिलने आई। उसने कहा, 'तथागत मैं नर्तकी हूं*'। आज नगर के श्रेष्ठी के घर मेरे नृत्य का कार्यक्रम पहले से तय था, लेकिन मैं उसके बारे में भूल चुकी थी। आपने कहा, ' जागो समय निकला जा रहा है तो मुझे तुरंत इस बात की याद आई।' *उसके बाद एक डाकू गौतम बुद्ध से मिला उसने कहा, 'तथागत मैं आपसे कोई बात छिपाऊंगा नहीं, मै भूल गया था कि आज मुझे एक जगह डाका डालने जाना था कि आज उपदेश सुनते ही मुझे अपनी योजना याद आ गई।' इस तरह एक बूढ़ा व्यक्ति बुद्ध के पास आया *वृद्ध ने कहा, 'तथागत! जिन्दगी भर दुनिया भर की चीजों के पीछे भागता र

।।010।। बोध कथा। 🌺 भूतकाल को भुलाया जाए 🌺

मृत आत्मीय जनों के प्रति मोह स्वाभाविक होता है। ऐसे विरले ही होते हैं जो उस बेला में अपने आप को संतुलित रख, होनी को स्वीकार करते हैं। मरण को स्वाभाविक क्रिया मानकर जीवात्मा की शास्वतता, चिरंतन्ता, को स्वीकार किया जाना चाहिए।इस तथ्य की पुष्टि अनेकों पौराणिक आख्यानो से होती है।  राजा प्रद्युम्न बीमार पड़े। बहुत चिकित्सा कराने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ, अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए। राजमहल शोक में डूब गया। रानी, राजपुत्रों,  समेत सभी विलाप करने लगे। सोचने लगे किसी प्रकार राजा का मृत शरीर पुनर्जीवित हो उठे।   उन दिनों महर्षि पुरन्ध्र अनेक रिद्धि सिद्धियों के अधिष्ठाता थे। उनकी कृपा से बड़ी से बड़ी विपत्ति टल जाने एवं असंभव भी संभव हो जाने की ख्याति फैली हुई थी।  संयोगवश राजा की मृत्यु के तुरंत बाद वे उधर आ निकले। उन्होंने उचित समझा कि शोक संतप्त परिवार को सांत्वना दी जाए एवं राज्य की भावी व्यवस्था की रूपरेखा देख ली जाए। मृत राजा उनके भक्तों में से एक थे।  महर्षि पुरन्ध्र का आगमन सभी लोगों में आशा का संचार कर गया। सभी एक स्वर से, एक ही निवेदन करने लगे कि, किसी प्रकार राजा को पुनर्जीवित कर दिया

।।009।। बोधकथा। 💐🏵 नर सेवा ही नारायण सेवा🏵💐

 दुनियादारी की बातों से परेशान होकर कुछ युवकों के मन में क्षणिक वैराग्य जागा और वे घर छोड़ जंगल को निकल चले।  चलते चलते बातों का क्रम चल पड़ा। एक ने पूछा -अच्छा भाई !यह बताओ कि जब हम तपस्या करेंगे और उससे प्रसन्न होकर भगवान आएंगे,तो हम क्या वरदान मांगेंगे? दूसरा बोला "मैं तो भर पेट अन्न मांगूंगा। भूखे पेट कौन जीवित रह पाएगा?" तीसरा बोला "मैं तो अपार बल मांगूंगा। शक्ति हो तो कोई भी राह खुल जाती है।" चौथा बोला "मैं तो बुद्धि मांगूंगा,सुना है बुद्धि धनबल, जनबल से भी श्रेष्ठ है।" पांचवा बोला "मैं तो स्वर्ग मांग लूंगा,वहां तो सब वैसे ही उपलब्ध है।" उनकी बातें सुन रहा एक साधु बोला -"मूर्खो!  तुमसे ना तपस्या होगी और ना तुम्हें कोई वरदान मिलेगा। तपस्या के लिए मनोबल और तितिक्षा की आवश्यकता होती है और यदि तुममें वह होता, तो तुम आज संसार से घबराकर भागने के बजाय,अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए आगे बढ़ते।" मेरी मानो तो वापस लौटकर प्राणी मात्र की सेवा में लग जाओ,वही सच्ची साधना है।"  युवकों को अपनी भूल का भान हुआ और वे घर वापस लौटकर सेवा

गांधीजी के पहले भी बहुत से स्वतंत्रता सेनानी थे, फिर गांधीजी अकेले हीरो कैसे बन गए? 🤔🤔

(चित्र:- लंदन में वीर सावरकर तथा मदन लाल ढींगरा) कहीं इसीलिए तो कवि ने नहीं लिखा था कि साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल! 17 अगस्त 1909 : इंग्लैंड की पेंटोविल्ले जेल के बाहर वीर सावरकर एक 25 वर्ष के नवयुवक के शव को लेने की प्रतीक्षा कर रहे थे,  फांसी पर लटकाने के बाद वह शव ब्रिटिश सरकार ने किसी को नही सौंपा था। ये शव था महान क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा का.. एक धनी और सम्पन्न परिवार का वह बेटा जिसे उसके ब्रिटिश सरकार मे कार्यरत सिविल सर्जन पिता ने इंग्लैंड पढ़ने भेजा था। पर क्रांति की ज्वाला ऐसी थी की वीर सावरकर के साथ मिल कर मदन लाल जी ने 1901 मे भारत पर अत्याचार कर के इंग्लैंड लौटे एक ब्रिटिश आर्मी ऑफिसर कर्ज़न वाईली को सबक सीखने की सोची। 1 जुलाई 1909 को मदन लाल ढींगरा ने इंपेरियाल इंस्टीट्यूट इंग्लैंड मे हो रही एक सभा मे कर्ज़न वाईली को गोलियो से भून दिया, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हे गिरफ्तार कर के 17 अगस्त 1909 को फांसी दे दी। मदन लाल में हौंसला और निडरता इतनी थी की जब अदालत मे इन पर कारवाई हुई तो इन्होने साफ कह दिया की ब्रिटिश सरकार को कोई हक़ नही है मुझ पर मुकदमा चलाने का... जो

व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, स्वच्छंद नहीं

        *वेदों के अनुसार व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, स्वच्छंद नहीं। फिर भी वह अपनी मूर्खता और दुष्टता के कारण स्वच्छंद होकर अपराध करता रहता है, तथा दूसरों को दुख भी देता रहता है।*         आपने ये दोनों शब्द सुने होंगे- *स्वतंत्रता और स्वच्छंदता*। दोनों में बहुत अंतर है। स्व का अर्थ होता है - स्वयं। और तंत्र का अर्थ होता है - शासन व्यवस्था नियम संविधान या कानून।  *इस प्रकार से स्वतंत्र  शब्द का अर्थ हुआ - स्वयं अपने ऊपर कानून लागू करना।*         कौन सा कानून? ईश्वर का बनाया हुआ कानून। क्यों लागू करना? क्योंकि वह सुखदायक है।          हम सब लोग सुखी जीवन जीना चाहते हैं। हम सामाजिक प्राणी हैं, क्योंकि हम सामाजिक जीवन जीते हैं, हम अकेले नहीं जी सकते। सुखी जीवन जीने के लिए हमें अन्य बहुत से लोगों की सहायता लेनी पड़ती है। जब हम दूसरों से सहायता लेते हैं, तो उन्हें भी हमारी सहायता की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए हमें भी उनको सहायता देनी उचित है। *बस इसी प्रकार से एक दूसरे की सहायता करते हुए जीवन जीना, इसी का नाम सामाजिक जीवन है।*       तो जब सुखी जीवन जीने के लिए, दो या दो से अधिक व्यक्ति म

जीवन यात्रा

   "जन्म देने के बाद लड़की को फेंकने वाले माता-पिता अंदर ही अंदर रो रहे होंगे क्योंकि वे अपनी पैदा हुई बेटी से भी नहीं मिल सकते"  महाराष्ट्र के पुणे शहर में एक अनाथालय है, जिसे 'श्रीवास्तव अनाथालय' कहा जाता है।  13 अगस्त 1979 को शहर के एक अनजान कोने में एक लड़की का जन्म हुआ, माता-पिता को नहीं पता था कि यह एक मजबूरी है, कि उन्होंने सुबह-सुबह इस अनाथालय के पालने में अपने जिगर का एक टुकड़ा फेंक दिया, प्रबंधक अनाथालय की प्यारी सी बच्ची का नाम 'लैला' रखा गया।  उन दिनों हरेन और सू नाम का एक अमेरिकी जोड़ा भारत घूमने आया था।  उनके परिवार में पहले से ही एक लड़की थी, भारत आने का उनका मकसद एक लड़के को गोद लेना था।  वे एक सुन्दर लड़के की तलाश में इस आश्रम में आए।  उन्हें एक लड़का नहीं मिला, लेकिन सू की नज़र लैला पर पड़ी और लड़की की चमकीली भूरी आँखों और मासूम चेहरे को देखकर उसे उससे प्यार हो गया।  कानूनी कार्रवाई करने के बाद, लड़की को गोद ले लिया गया, सू ने अपना नाम लैला से बदलकर 'लिज' कर लिया, वे वापस अमेरिका चले गए, लेकिन कुछ वर्षों के बाद वे सिडनी में स्थायी रूप

।008।। बोध कथा। 🏵🌺 सिद्धि सर्वोपरि या सेवा 🌺🏵

 नहीं,नहीं मरुत! "श्रेष्ठता का आधार वह तपश्चर्या नहीं, जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियां और सामर्थ्य प्रदान करें। ऐसा तप तो शक्ति संचय का साधन मात्र है। श्रेष्ठ तपस्वी तो वह है, जो अपने लिए कुछ चाहे बिना, समाज के लिए, शोषित और पीड़ित, दलित और असहाय जनों को निरंतर ऊपर उठाने के लिए परिश्रम किया करता है।  इस दृष्टि से 'महर्षि कण्व' की तुलना 'राजर्षि विश्वामित्र' से नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसलिए है कि, वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि, के उत्थान के लिए निरंतर घुलते रहते हैं।"  देवराज इंद्र ने सहज भाव से मारुति की बात का प्रतिवाद किया।  पर मरुत अपनी बात पर अडिग थे। उन्होंने कहा- "तपस्या में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही हैं।"  "उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और वहां से कुछ दूर कण्व, आश्रम में जीवन यापन कर रहे थे। उनके आश्रम में बालकों को ही नहीं बालिकाओं को भी धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।" मरुत ने व्यंग करते हुए कहा- देवेश! आपको तो स्पर्धा का भय बना रहता है! किंतु आप विश्वा

ज्ञान की बातें हिंदू धर्म के बारे मैं

 1-अष्टाध्यायी               पाणिनी 2-रामायण                   वाल्मीकि 3-महाभारत                 वेदव्यास 4-अर्थशास्त्र                  चाणक्य 5-महाभाष्य                  पतंजलि 6-सत्सहसारिका सूत्र     नागार्जुन 7-बुद्धचरित                  अश्वघोष 8-सौंदरानन्द                 अश्वघोष 9-महाविभाषाशास्त्र        वसुमित्र 10- स्वप्नवासवदत्ता        भास 11-कामसूत्र               वात्स्यायन 12-कुमारसंभवम्        कालिदास 13-अभिज्ञानशकुंतलम्    कालिदास   14-विक्रमोउर्वशियां     कालिदास 15-मेघदूत                 कालिदास 16-रघुवंशम्               कालिदास 17-मालविकाग्निमित्रम् कालिदास 18-नाट्यशास्त्र             भरतमुनि 19-देवीचंद्रगुप्तम       विशाखदत्त 20-मृच्छकटिकम्          शूद्रक 21-सूर्य सिद्धान्त           आर्यभट्ट 22-वृहतसिंता             बरामिहिर 23-पंचतंत्र।               विष्णु शर्मा 24-कथासरित्सागर        सोमदेव 25-अभिधम्मकोश         वसुबन्धु 26-मुद्राराक्षस           विशाखदत्त 27-रावणवध।              भटिट 28-किरातार्जुनीयम्       भारवि 29-दशकुमारचरितम्     दंडी 30-हर्षचरित