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।।1017।। बोध कथा। 🌺🏵 अथातो ब्रह्म जिज्ञासा 🏵🌺

"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" तात! जिसकी ब्रह्म दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है। ब्रह्म ही क्यों, वत्स! जिज्ञासा तो मनुष्य को किसी भी कला, किसी भी विद्या, में पारंगत बना देती है।  हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम आश्रम में रहो और तप करो, एक दिन तुम्हें निश्चित ही भगवान का साक्षात्कार होगा।  यह कहकर महर्षि ऐलूष ने राजकुमार नीरव्रत की पीठ पर हाथ फेरा और उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों की तरह, छात्रावास के एक सामान्य कक्ष में रहने का प्रबंध कर दिया। नीरव्रत ने पहली बार अपना सामान अपने हाथों से उठाया।  प्रथम बार एक ऐसे निवास में ठहरे जिस निवास में दास दासी  नही थे। नीरव्रत ने उस दिन सादा भोजन लिया।   सायंकाल होने में विलंब लगा होगा, पर जीवन की इन प्रारंभिक विपरीत दिशाओं ने मस्तिष्क में क्रांति, विचार मंथन, प्रारंभ कर दिया। इतना शुष्क जीवन नीरव्रत ने पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए उससे अरुचि होना स्वाभाविक ही था।  शयन में जाने से पूर्व उन्होंने एक अन्य स्नातक को बुलाकर पूछा -तात आप कहां से आए हैं ?आपके पिता क्या करते हैं? आश्रम में निवास