श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने व्यक्ति के स्वधर्म की चर्चा की है। यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी विशिष्ट पूजा पद्धति से नहीं है। स्वधर्म से उनका अभिप्राय है कि हर व्यक्ति अपना एक विशिष्ट स्वभाव लेकर जन्म लेता है। भले ही उसकी शिक्षा-दीक्षा या कारोबार कुछ भी हो; पर कुछ कार्यों में उसे स्वाभाविक आनन्द और सन्तुष्टि मिलती है। डा. राकेश पोपली एक ऐसे ही व्यक्ति थे, जिन्हें सेवा धर्म स्वभाव में मिला था।
डा. राकेश पोपली मूलतः शिक्षाशास्त्री थे। बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे। अपनी कक्षा में सदा सबसे आगे रहते हुए केवल पढ़ाई में ही नहीं, तो विद्यालय की अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में भी वे सदा सक्रिय रहते थे। स्वाभाविक रूप से ऐसे छात्र को गुरुजनों का आशीर्वाद भी भरपूर मिलता है। डा. पोपली ऐसे ही सौभाग्यशाली छात्र थे।
उनकी प्रारम्भिक शिक्षा दिल्ली में हुई। उच्च शिक्षा पाकर उन्होंने अमरीका के विश्वप्रसिद्ध परड्यू विश्वविद्यालय से परमाणु विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि ली। इसके बाद उनके लिए अमरीका में नौकरी एवं शोध के भव्य द्वार खुले थे; पर उनके मन में तो अपने देश और देशवासियों की सेवा का भाव बसा था। इसलिए वे आई.आई.टी, कानपुर में प्राध्यापक हो गये।
अध्यापक रहते हुए भी वे कानपुर की निर्धन बस्तियों में जाते थे। उनका मत था कि निर्धन वर्ग में भी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें शिक्षा के समुचित अवसर और वातावरण मिले; साथ ही कोई सहानुभूतिपूर्वक उनका मार्गदर्शन करे। वे स्वयं तो इस काम में लगे ही, अनेक मित्रों को भी इससे जोड़ा। इसके बाद भी उनके मन को सम्पूर्ण सन्तुष्टि नहीं थी। वे इससे भी अधिक करना चाहते थे।
1982 में उच्च शिक्षा प्राप्त महेश शर्मा, अशोक भगत आदि युवकों ने झारखण्ड के अत्यधिक पिछड़े वनवासी क्षेत्र बिशुनपुर के सम्पूर्ण विकास को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इनका मत था कि केवल बाहरी सहायता से ही किसी क्षेत्र का विकास नहीं हो सकता। विकास का सही अर्थ है स्थानीय संसाधन एवं परम्पराओं को पुनर्जीवित कर क्षेत्रवासियों के आत्मविश्वास का जागरण। इसके लिए ‘विकास भारती, बिशुनपुर’ का गठन किया गया। डा. राकेश पोपली प्रारम्भ से ही इस प्रकल्प के साथ जुड़ गये।
1984 में डा. पोपली बी.आई.टी मेसरा (राँची) में व्यावहारिक भौतिकी के प्राध्यापक हो गये। इसके साथ ही वे लोक विज्ञान और वनवासी क्षेत्र में बाल शिक्षा पर शोध भी करते रहे। उन्होंने और उनकी पत्नी रमा पोपली ने मिलकर ग्राम एवं निर्धन बस्तियों के लिए ‘एकल विद्यालय’ की सम्पूर्ण पद्यति विकसित की। स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर उन्होंने ‘ध्वनि वाचन’ और ‘अष्टशील’ का सफल प्रयोग किया। आज पूरे देश में एकल विद्यालयों का जो जाल फैला है, उसके पीछे पोपली दम्पति की ही साधना है।
डा. राकेश पोपली ने अनेक समाजोपयोगी पुस्तकें लिखीं। वे सेवा कार्य की इस विधा को और विकसित करना चाहते थे; पर दुर्भाग्य से उन्हें कैंसर रोग ने घेर लिया। तीन साल तक वे इससे लड़ते रहे। परिवारजनों और मित्रों की प्रेमपूर्ण सहानुभूति और चिकित्सकों की दवाओं के बावजूद 15 सितम्बर, 2007 को जयपुर में सेवा का यह दीप सदा के लिए बुझ गया।
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