महाभारत युद्ध के पश्चात पांडवों ने अनेक यज्ञ किए, लेकिन स्वजनों की हत्या की वेदना रह -रह कर मन को कचोटती रही, और राजभोग से वैराग्य हो गया, तो मां कुंती सहित तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े।
रास्ते में व्यास मुनि के दर्शन कर अपना उद्देश बताया, तो मुनि ने कहा आप लोग तीर्थ यात्रा में जहां जहां जाएं, जिन पवित्र नदियों में स्नान करें, मेरा यह तुंबा भी ले जाओ और उसे भी स्नान करा देना।
तीर्थ यात्रा के पश्चात, व्यास मुनि के आश्रम पहुंचकर पांडवों ने तुंबा वापस किया। मुनि ने शिष्य को आदेश दिया- वत्स! इस तुंबे को काटकर सबको प्रसाद रूप में दे दो। लेकिन यह क्या! मुंह पर रखते हैं सभी थू-थू करने लगे।
पांडवों ने कहा- महाराज! यह तो बहुत कड़वा है।
मुनि ने कहा- अरे तुमने इसे तीर्थ कराए, पवित्र नदियों में स्नान कराया, फिर भी कड़वा है !
कुंती ने कहा- महाराज! क्या कभी स्वभाव भी बदल सकता है ?
मुनि ने उत्तर दिया- नहीं देवी! प्रकृति के नियम तो सनातन है, वह कैसे बदलेंगे? किंतु स्वभाव के ऊपर जो विकृतियों आ जाती हैं, और उसे मलिन कर देते हैं,वह तो हटाई जा सकती है। किंतु उसके लिए तन के स्नान के बजाय, मन के स्नान की जरूरत है। मेरा तुंबा तो जैसा गया था वैसा ही आया। तुम लोग भी जैसे गए वैसे ही आ गए । मन की ग्लानि में कोई फर्क आया है क्या?
युधिष्ठिर तुमने देख लिया ना!कि मन का भार, ना तो अपने बाहर भागने से उतरता है, ना दूसरों पर उसे छोड़ देने से । सोने को निर्मल होने के लिए स्वयं ही आग में तपना होता है। इसलिए व्याकुलता छोड़ो, तुम्हारे भीतर जो पश्चाताप जागृत है, उसकी अग्नि तुम्हारी चेतना को निर्मल करेगी। पश्चाताप अपने आप में महान तपस्या है ।
तीर्थ यात्रा के पीछे, तन को नहीं, मन को निर्मल करने का विधान होने के कारण ही, उसे पूज्य माना गया है । यदि यह पुण्य विधान ना रहे, तो यह निष्प्रयोजन ही रहेगा।
।। मनेन्दु पहारिया।।
09/09/2022
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