पहले संघ और फिर भारतीय जनसंघ के काम में अपना जीवन खपाने वाले पंडित बच्छराज व्यास का जन्म नागपुर में 24 सितम्बर, 1916 को हुआ था। उनके पिता श्री श्यामलाल मूलतः डीडवाना (राजस्थान) के निवासी थे, जो एक व्यापारिक फर्म में मुनीम होकर नागपुर आये थे।
बच्छराज जी एक मेधावी छात्र थे। बी.ए. (ऑनर्स) और फिर एल.एल-बी. कर वे वकालत करने लगे। महाविद्यालय में पढ़ते समय वे अपने समवयस्क श्री बालासाहब देवरस के सम्पर्क में आकर शाखा आने लगे। दोनों का निवास भी निकट ही था। बालासाहब के माध्यम से उनकी भेंट संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। व्यक्ति को पहचाने की कला में माहिर डा. जी ने एक-दो भेंट के बाद बालासाहब से कहा कि यह बड़े काम का आदमी है, इसे पास में रखना चाहिए। बालासाहब ने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाया।
बच्छराज जी के घर खानपान में छुआछूत का बहुत विचार होता था। पहली बार शिविर में आने पर डा. जी ने उन्हें अपना भोजन अलग बनाने की अनुमति दे दी। शिविर के बाद बच्छराज जी संघ के काम में खूब रम गये और उनके माध्यम से अनेक मारवाड़ी युवक स्वयंसेवक बने। अगली बार वे सब भी शिविर में आये और उन्होंने अपना भोजन अलग बनाया; पर तीसरे शिविर तक वे सब संघ के संस्कारों में ढलकर सामूहिक भोजन करने लगे। संघ में समरसता का विचार कैसे जड़ पकड़ता है, बच्छराज जी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
धीरे-धीरे बच्छराज जी की वकालत अच्छी चलने लगी; पर इसके साथ ही शाखा की ओर भी उनका पूरा ध्यान रहता था। उनके प्रयास से मारवाड़ियों के साथ ही गुजराती, सिन्धी,उत्तर भारतीय तथा महाराष्ट्र से बाहर के मूल निवासी युवक बड़ी संख्या में शाखा आने लगे। श्री गुरुजी का उन पर बहुत विश्वास था। संघ विचार से चलने वाले विविध संगठनों को धन की आवश्यकता होने पर श्री गुरुजी यह काम उन्हें सौंप देते थे। बच्छराज जी अपनी वकालत का काम सहयोगियों को देकर स्वयं कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, सूरत, भाग्यनगर आदि बड़े नगरों में जाकर अपने परिचित मारवाड़ी व्यापारियों से धन ले आते थे।
तृतीय वर्ष शिक्षित बच्छराज जी का विवाह छात्र जीवन में ही हो गया था। इसके बाद भी उनके जीवन में प्राथमिकता संघ कार्य को ही रहती थी। उन दिनों राजस्थान छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था। संघ का काम वहां नगण्य होने के कारण दिल्ली से श्री वसंतराव ओक के निर्देशन में चलता था। ऐसे में श्री बालासाहब ने श्री गुरुजी को सुझाव दिया कि बच्छराज जी को वहां भेजा जाये। बच्छराज जी सहर्ष इस आज्ञा को शिरोधार्य कर वकालत और गृहस्थी छोड़कर राजस्थान चले गये। 1944 से 47 तक उन्होंने सतत प्रवास कर वहां संघ कार्य की नींव को मजबूत किया। वहां सब लोग उन्हें ‘भैया जी’ कहते थे।
राजस्थान से लौटकर वे फिर से नागपुर में सक्रिय हो गये। 1948 के प्रतिबंध काल में नागपुर केन्द्र को संभालते हुए उन्होंने देश भर के सत्याग्रह को गति दी। प्रतिबंध समाप्ति के बाद जब कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने संघ की दिशा बदलने का आग्रह किया, तो उन्होंने इसका प्रबल विरोध किया। 1965 में श्री गुरुजी और बालासाहब के आदेश पर वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 14वर्ष तक वे स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य भी रहे। संघ जीवन के आदर्श उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी बनाये रखे। वे एक शिवभक्त थे, तो कवि भी;पर इन सबसे पहले वे स्वयंसेवक थे।
जनसेवा को ही अपना जीवनधर्म मानने वाले बच्छराज जी 15 मार्च, 1972 को गोलोकवासी हो गये।
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