वीतराग, है सर्व त्यागी, और निष्काम 'ऋषि भरत' इतने निश्चल और निर्विकार रहते थे कि,लोगों ने उपहास में उन्हें जड़ कहना आरंभ कर दिया। जड़ शब्द, लोक व्यवहार में इतना प्रचलित हुआ कि, उनके मूल नाम से जुड़ कर उन्हें 'जड़ भरत' ही कहा जाने लगा। लोग उन्हें कुछ भी कहते, मान या अपमान, निंदा या प्रशंसा, इसकी उन्हें ना कोई अपेक्षा रहती, ना ही चिंता। सरल इतने, कि लोग उन्हें मूर्ख समझ कर रोटी के बदले कोई भी बेगार करने को कहते, तो वह भी अविचल भाव से कर लेते।
एक दिन की घटना है। सिंधु सौवीर प्रदेश के राजा 'रहूगण' महर्षि कपिल का सत्संग करने के लिए पालकी पर बैठकर जा रहे थे। संयोग से उसी समय जड़ भरत विचरण करते दिखाई दिए। वेशभूषा से उन्हें महर्षि तो क्या, कोई ब्राह्मण भी नहीं समझ सकता था। शरीर से बलवान और मुद्रा से प्रशन्न, सरल भरत को भारवाहकों ने कोई चरवाहा समझा और उन्हें पकड़कर सौवीर नरेश की पालकी उठाने में, बीमार साथी के स्थान पर लगा दिया। स्वभाव से ही ना करना नहीं जानने वाले महर्षि भरत ने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया और रुग्ण व्यक्ति के स्थान पर स्वयं जुट गए।
उन्हें इस कार्य का अभ्यास तो था नहीं, इसलिए भी अन्य भारवाहकों की तरह उनके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात का भी ध्यान रहता था कि, धरती पर चलने वाला कोई जीव पैरों से कुचल कर ना मर जाए। इस सतर्कता एवं अभ्यास ना होने के कारण उनके पैर लड़खड़ा जाते थे।
पालकी लड़खड़ा जाने के कारण भीतर बैठे सौवीर नरेश भी उछल पड़ते। जब बार बार ऐसा हुआ, तो राजा रहूगण ने बाहर देखा। उनकी दृष्टि से ही कहारों ने समझ लिया कि नरेश क्रोधित हैं। कहीं एक के किए का दंड सभी को ना भुगतना पड़े, इसलिए उन्होंने भारत की गलती के बारे में बता दिया।
इस पर सौवीर नरेश ने व्यंग किया- "ओह बंधु !तुम इतने दुर्बल हो गए हो, वृद्धावस्था ने तुम्हें कैसा बना दिया? यह बुढ़ापा भी कितना बुरा है! शायद तुम थके हुए भी हो और प्रतीत होता है कि तुम्हारे साथी भी ठीक से तुम्हारी सहायता नहीं कर पा रहे हैं।"
भरत ने कोई उत्तर नहीं दिया वैसे भी चुप रहना उनके स्वभाव में था।
कुछ दूर चल कर वे फिर लड़खड़ाए। अब तो राजा बिफर उठे। क्या बात है? मूर्ख तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आ रही या तुम बहरे हो ?
मौंन तोड़कर भरत ने कहा-"राजन! आपकी पिछली बात मैंने सुनी थी और उसका आशय भी समझा था! मुझे ज्ञात है कि बोझा ठीक से ढोने के लिए होता है, और उसे ठीक से ढोना चाहिए! पर मुझे यह समझ में नहीं आता, कि आदमी-आदमी के ऊपर बोझा क्यों बने?
राजा को इस उत्तर की आशा नहीं थी। एक साधारण सा भार वाहक, राजा को ऐसा प्रतिउत्तर दे और वह भी इतना कड़ा! राजा आग बबूला हो उठे। तुरंत पालकी से उतर और अपनी तलवार निकाल ली। अन्य भार वाहक भय के कारण दूर जाकर खड़े हो गए।
राजा बोला -रे दुष्ट! तेरी यह धृष्टता? किससे किस तरह व्यवहार करना चाहिए, यह भी तुझे नहीं आता । ठहर में अभी तुझे मारकर, किए की सजा देता हूं।
इस पर भी जड़ भरत अविचलित भाव से खड़े राजा की क्रोधित मुद्रा को सदय भाव से देख रहे थे। उनके चेहरे पर रोष, भय, चिंता, का नामोनिशान ना था।
राजा ने खड़ग उठाते हुए कहा- तुझे अपनी भूल का कोई पछतावा नहीं?
भरत ने कहा- "भूल तो राजन मैंने भी की है, और आपने भी। इस भूल के कारण ही तो हमें इस संसार में पुनः आना पड़ा! पर मेरी भूल बड़ी थी, कि मैं जानबूझकर मोह में पड़ा।"
राजा ने समझा शायद यह पागल है और ऐसे ही प्रलाप कर रहा है। उसने अन्य कहारों को क्रोधित नजर से देखा, जिन्होंने भरत को पकड़कर पालकी में जोत दिया था।
कहां- "तुम लोग हो सही दंड के भागी! तुमने इस पागल को क्यों पकड़ लिया?"
भारवाहक थरथर कांपने लगे। क्रोध के कारण, लाल अंगारे हुई आंखों को देखकर भरत और भी दयार्द्र हो उठे।
बोले- "राजन! इन लोगों का कोई दोष नहीं है। आप दंड तो मुझे देने वाले थे, मुझे ही दीजिए ना!"
अब राजा रहूगण फिर चौंके। कुछ समय पहले पहेलियां बुझाने वाला यह व्यक्ति अब कितनी विनम्रता पूर्वक बात कह रहा है। राजा की कुछ समझ में नहीं आया। तभी भरत ने पुनः कहा- "दीजिए ना राजदंड। आप किसे दंड देने वाले थे? आपने मेरे इस स्थूल शरीर को देखकर ही व्यंग किया था ना? लेकिन इसे काटकर तो आप मुझे मार नहीं सकते। जिस तरह आप सिर से धड़ को काटकर अलग गिरा हुआ छटपटाते देखेंगे, उसी प्रकार में भी देखूंगा।"
कहते कहते भरत के मुख मंडल पर सौवीर नरेश को एक तेजस्विता दिखाई देने लगी।
जड़ भरत कहे जा रहे थे -"शरीर से आत्मा का क्या वास्ता? भूख,प्यास, क्रोध, अभिमान, उनके लिए है जो इंद्रियों के स्वाद में डूबा हुआ है। और आसक्ति का दंश मुझे एक बार हो चुका है, इसलिए आप निशंक, निसंकोच मुझे दंड दीजिए।"
ब्रह्मा विद्या के इन गूढ़ रहस्य को सुनकर क्रोधित राजा शांत हो गए,तथा पश्चाताप से दग्ध होने लगे। उनके सामने धरती आसमान सब घूमने लगे। महर्षि भारत के तत्वज्ञान ने उनको पूरी तरह पराभूत कर दिया और वे पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगे।
पूर्णता अविचल भाव से भरत, सोबीर नरेश के क्षण क्षण बदलते रूप को देख रहे थे और करूणार्द्र हो रहे थे। इधर सोबीर नरेश कहे जा रहे थे "भगवान मैं आपको पहचान ना सका। अवश्य ही आप उच्चकुल के योगी हैं। मुझसे जो अपराध हुआ है, उसके लिए मैं क्या प्रायश्चित करूं?"
"अपराध तो तब होता राजन! जब आपके किए से मुझे वेदना या पीड़ा होती! मुझे तो ऐसा कुछ भी आभास नहीं हुआ, फिर मैं आपको कैसे दोषी मानूँ, और प्रायश्चित या क्षमा का विधान करने वाला मैं कौन होता हूं?"
सौवीर नरेश ने अपनी यात्रा वही स्थगित कर दी और महर्षि जड़ भरत के चरणों में बैठकर ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्राप्त किया।
महर्षि भरत ने कहा- "राजन!आसक्ति ही सब दुखों की जननी है, यहां तक कि वही पुनः जन्म लेने के लिए बाध्य करती है। इसके पूर्व मैं, मृग योनि में था, और मृगयोनि प्राप्त करने से पहले भी मैं, शालग्राम क्षेत्र में योग साधना करता था। आसक्ति बस ही मुझे मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा।"
"यह आसक्ति ही मनुष्य को तरह-तरह से दुख देती है और बंधनों में बांधती है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कुल,वंश,पद, तो क्या, इस शरीर से भी आसक्ति ना करें। अनासक्त रहकर कर्तव्य कर्म का आचरण करने से मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।"
महर्षि भारत के इन शब्दों को सुनकर सौवीर नरेश को जैसे अंधकार भरे पथ में सूर्य आलोक मिल गया। उन्होंने अपना सारा राज गुरु चरणों में दक्षिणा स्वरूप समर्पित कर दिया। महर्षि भरत ने यह कहकर राज्य संचालन का दायित्व राजा को सौंप दिया कि कर्तव्य समझकर कर्म करो। इसे अपना प्रायश्चित भी समझ सकते हो।
।। मनेन्दु पहारिया।।
29/08/2022
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