।008।। बोध कथा। 🏵🌺 सिद्धि सर्वोपरि या सेवा 🌺🏵



 नहीं,नहीं मरुत! "श्रेष्ठता का आधार वह तपश्चर्या नहीं, जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियां और सामर्थ्य प्रदान करें। ऐसा तप तो शक्ति संचय का साधन मात्र है। श्रेष्ठ तपस्वी तो वह है, जो अपने लिए कुछ चाहे बिना, समाज के लिए, शोषित और पीड़ित, दलित और असहाय जनों को निरंतर ऊपर उठाने के लिए परिश्रम किया करता है।

 इस दृष्टि से 'महर्षि कण्व' की तुलना 'राजर्षि विश्वामित्र' से नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसलिए है कि, वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि, के उत्थान के लिए निरंतर घुलते रहते हैं।"

 देवराज इंद्र ने सहज भाव से मारुति की बात का प्रतिवाद किया।


 पर मरुत अपनी बात पर अडिग थे। उन्होंने कहा- "तपस्या में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही हैं।"

 "उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और वहां से कुछ दूर कण्व, आश्रम में जीवन यापन कर रहे थे। उनके आश्रम में बालकों को ही नहीं बालिकाओं को भी धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।"


मरुत ने व्यंग करते हुए कहा- देवेश! आपको तो स्पर्धा का भय बना रहता है! किंतु आप विश्वास रखिए, विश्वामित्र त्यागी सर्वप्रथम हैं, तपस्वी बाद में। उन्हें आपके इंद्रासन का कोई लोभ नहीं! तप तो वह आत्म कल्याण के लिए कर रहे हैं। उन्होंने ना चुकने वाली सिद्धियां अर्जित की है। उन सिद्धियों का लाभ समाज को कभी भी दिया जा सकता है।"


 इंद्र बोले- "मैं विश्वामित्र की सिद्धियों को समझता हूं मरुत! किंतु सिद्धियां प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं, कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक कल्याण में करें। शक्ति में अहम भाव का जो दोष है, वह सेवा में नहीं! इसलिए सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूं। इसी कारण कण्व विश्वामित्र से श्रेष्ठ हैं।"


 उसी समय महारानी शची पधारी, और हंसते हुए कहा -क्यों ना इन दोनों की परीक्षा कर ली जावे? 

बात निश्चित हो गई। देवगण उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, देखें सिद्धि की विजय होती है या सेवा की। 

देवराज ने मेनका को आहूत कर सारी बातें समझा दी, जो परीक्षा करनी थी। 


सवेरा हुआ, यह समय भगवती गायत्री की आराधना का सर्वोत्कृष्ट समय होता है। विश्वामित्र, प्राणायाम समाप्त कर जप के लिए बैठे थे। आश्रम के चारों ओर गहन निस्तब्धता व्याप्त थी। राजर्षि विश्वामित्र का दिव्य तेज फूट रहा था। निस्तब्धता को तोड़ते हुए मेनका, 'जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भांति जल जाने के लिए देव आतुर रहते थे' उसने आज अप्रतिम श्रृंगार कर, विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया।


 पायल की झंकार से वातावरण भी सिहर उठा। जिस आश्रम मैं पुष्पों की सुगंधि व्याप्त थी, वहां देखते-देखते, वैभव विलास की मादकता झलकने लगी। पर विश्वामित्र की समाधि निश्चल,अविचल! अंतरिक्ष में गए प्राण जिस सुख और शांति की अनुभूति में निमग्न थे, यह नयापन उसकी तुलना में नगण्य था। 


जैसे-जैसे मेनका के पांव की थिरकन बढ़ी,  संगीत लहरी ने विश्वामित्र की चेतना मैं आकुलता बढ़ा दी। रूप और सौंदर्य के इंद्रजाल ने आकाश में विलीन तपस्वी की एकाग्रता को आश्रम में ला पटका। 'मेनका नृत्य में खो गई और विश्वामित्र की स्थिरता खो गई, उसके अंग सौष्ठव,  रूप सज्जा में!


 दंड और कमंडल एक और रख दिए।  कस्तूरी मृग, जिस तरह बहेलिया की संगीत ध्वनि से मोहित होकर, काल कवलित होने के लिए चल पड़ता है, सर्प जिस तरह वेणुनाद सुनकर लहराने लगता है, राजर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रूपसी के आंचल में न्योछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि, विश्वामित्र का तप भंग हो गया!


 एक दिन, सप्ताह,पक्ष, मास, बीते और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज स्खलित हो गया। तपस्वी का तप, काम के बदले बिक गया,और तप के साथ उनकी शांति, यश,  सिद्धि वैभव, भी नष्ट हो गया। तब उन्हें पता चला, कि भूल नहीं, अपराध हो गया!

 विश्वामित्र प्रायश्चित की ज्वाला में दहकने लगे। क्रोधोन्माद में ऋषि ने मेनका को दंड देने का निश्चय किया, पर मेनका आश्रम से जा चुकी थी, एक रोती बिलखती बालिका को छोड़कर!


 ऋषि ने देखा तो क्रोध से जलने लगे।  पर अब क्या हो सकता था? विश्वामित्र को पश्चाताप और प्रतिशोध रग रग में था। वे आत्म कल्याण एवं अपराध के परिमार्जन के लिए तपस्या के लिए निकल पड़े, रोती कन्या छोड़कर! 


दोपहर के समय ऋषि कण्व लकड़ियां काट कर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया, अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुंह में चूसती  भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी। 

कण्व ने बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठी। बालिका को उठाया  चूमा, गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे पीछे उनके शिष्य भी थे।


 इंद्र ने मरुत से पूछा- तो बोलो, जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भावना नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिए इतना गहन प्यार कि, उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार हुआ, कण्व श्रेष्ठ हैं, या विश्वामित्र 

मरुत कुछ बोल ना सके। 

हाँ यही बालिका थी शकुंतला।

और विश्वामित्र ने घोर तप करके, राजर्षि से ब्रह्मर्षि से पद प्राप्त है किया।


।। मनेन्दु पहारिया।।

   24/08/2022

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