सेठ जी के ऊपर लक्ष्मी की बहुत कृपा थी, कोई कमी नहीं थी। चार सुंदर बेटे थे। उनका विवाह धूमधाम से हुआ। बहूएँ अपने साथ खूब दान दहेज लाईं।सेठ- सेठानी प्रसन्नता से फूले न समाते थे।
किंतु समय का चक्र बड़ा प्रबल है, आज जहां आनंद है, कल वहां दुख हो सकता है। जहां बाग हैं, कल वहां मरघट हो सकता है।
सेठ जी के साथ भी यही हुआ। चारों बहुओं में मनमुटाव बढ़ने लगा।
"सम्मिलित रहने का एक ही सिद्धांत है कि, हर मनुष्य अपने सुख की अपेक्षा दूसरे का अधिक ध्यान रखें," किंतु जहां'आपापूति' शुरू हो जाती है,अपने लिए अधिक लेने और दूसरे को कम देने की प्रवृत्ति चल पड़ती है, वहां सांझा नहीं चल सकता। एक ना एक दिन कलह और विद्रोह जरूर पनप उठेगा।
बहुओं में भी हर एक अपने लिए अधिक सुख चाहती और दूसरों की उपेक्षा करती थी। फलस्वरुप घर में लड़ाई के बीज बढ़ने लगे।
स्त्रियों के मनमुटाव की छाया पुरुषों पर भी पड़ी, वे एक दूसरे से असंतुष्ट रहने लगे। चारों में मनमुटाव होने लगा।
जहां कार्यकर्ताओं के चित्त में उद्विग्नता है, वहां कार्य ठीक प्रकार पूरा नहीं हो सकता, और व्यापारी के काम अधूरे पड़े रहते हैं।
जैसे-जैसे कलह बढ़ने लगा, वैसे ही व्यापार में घाटा होने लगा, आर्थिक दशा कमजोर होने लगी।
सेठ ने एक दिन सपना देखा कि, लक्ष्मी जी घर को छोड़कर जा रही हैं। उन्होंने कहा- पुत्र! मैं तेरे यहां बहुत समय रही, पर अब नहीं रहूंगी।
सेठ जी लक्ष्मी के अनन्य सेवक थे। जीवन भर उन्होंने उसी की उपासना की थी। उन्हें बहुत वेदना हुई। लक्ष्मी के चरणों में लोट गए, रोकर कहने लगे,माँ दया करो।
लक्ष्मी जी को दया आ गई। कहा- "पुत्र! मेरा जाना तो निश्चित है, पर तेरी भक्ति देखकर एक वरदान तुझे दे सकती हूँ, तू मुझे छोड़ कर जो चाहे सो तू मांग ले।"
स्वप्न में ही सेठ जी ने कहा- माता अभी मेरा चित्त स्थिर नहीं है, मैं क्या मांगू यह निर्णय नहीं कर पा रहा, अतः आप कल तक का अवसर मुझेदें!
लक्ष्मी जी दूसरे दिन आने का कहकर अंतर्ध्यान हो गई।
सेठ जी का स्वप्न टूटा, उनका कलेजा धक-धक कर रहा था।
प्रातःकाल सेठ ने अपने सब पुत्रों और पुत्र वधूओं को बुलाकर रात का स्वप्न बताया।
उस जमाने में लोगों के मन ज्यादा मैले नहीं होते थे, इसलिए उन्हें जो दिव्य स्वप्न दिखाई देते थे, वे प्रायः सत्य ही होते थे।
सबको विश्वास हो गया कि सपना अवश्य ही सत्य होगा । सब विचार करने लगे -लक्ष्मी जी से क्या मांगना चाहिए?
लड़कों में से किसी ने कोठी, किसी ने मोटर,किसी ने आभूषण, आदि मांगने को कहा, किंतु छोटे बेटे की बहू ने नम्रता पूर्वक कहा- "पिताजी" मेरी सलाह तो यह है कि,आप लक्ष्मी जी से 'ऐक्य' का वरदान मांगे। हम लोग जहां जिस परिस्थिति में रहे, हम सबमें प्रेम बना रहे, यही मांगिए।"
छोटी बहू की बात सबको पसंद आई ।
रात में लक्ष्मी जी पधारी, सेठ ने कहा -"माता! हम लोग चाहे जैसे सुख दुख में रहे, परंतु सब में प्रेम भाव बना रहे, मिलजुल कर रहे।"
लक्ष्मी इस याचना को सुनकर अवाक रह गई। उन्होंने कहा-"यही तो मेरे जाने का कारण था। कलह और द्वेष के कारण ही तो मैं तुम लोगों के यहां से जा रही थी, पर जब तुम्हें यह वरदान दूंगी, तो कैसे जाऊंगी?"
लक्ष्मी जी वचनबद्ध थी, उन्हें यह वरदान देना पड़ा,और अपने चले जाने का विचार भी छोड़ देना पड़ा,क्योंकि जिस परिवार में प्रेम और संगठन है, लक्ष्मी उसे छोड़कर जा ही नहीं सकती।
।। मनेन्दु पहारिया।।
29/08/2022
टिप्पणियाँ