छात्रों ने काशी में संस्कृत विद्या पढ़ी। उनमें से चार ने स्वयं को पारंगत समझकर घर लौटे। मार्ग लंबा था। सो कुछ महत्वपूर्ण नीति वाक्य उन्होंने याद कर लिए, ताकि उलझनें सुलझाने में काम आए। और इन वाक्यों का यथा समय प्रयोग करते हुए मार्ग पूरा करने का निश्चय किया।
मार्ग में जाते हुए एक चौराहा पड़ा, सही रास्ता कौन सा है यह जानना था। उन्हें सूत्र याद आया "महाजनों येन गतः स पंथाः"
अर्थात-"महाजन जिस रास्ते पर चलें,वही मार्ग ठीक है।"
उस मार्ग पर शव को कंधों पर रखे भीड़ जा रही थी। चारों उस भीड़ के पीछे चल पड़े और इस श्मशान पहुंच गए।
यहां अपना कौन,पराया कौन? स्मरण आया कि, "भाई सगा होता है।"
यहां कोई भाई है क्या? नजर दौड़ाई। श्मशान में एक गधा चर रहा था।
सूत्र याद आया "राजद्वारे,श्मशाने च,या तिष्ठति सः बांधवा"
" राजदरबार और श्मशान में जो खड़ा हो वह भाई है।"
इस कसौटी पर गधा ही खरा उतर रहा था। सो, वे उसके गले मिले और रास्ता पूछा। गधे ने दुलत्तियां लगा दी। काफी चोट आई।
भटकते भटकते वे नदी तट पर पहुंचे। नदी पार कैसे हो? कौन पार् करावे? नाँव दिखी नहीं। केला का बड़ा पत्ता बहता नजर आया। नीति वाक्य भी याद आ गया "आगमिष्यति यत्पत्र तदस्मांस्तारयिष्यति"
अर्थात- जो पत्ता बहता आएगा वही उद्धार करेगा। सो, वे पते पर चढ़कर पार होने की बात सोचने लगे और डूबते डूबते बचे। फिर भी एक अधिक गहरे पानी में चला गया। अब क्या करें?
फिर नीति श्लोक याद आया- "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्य त्यजति पंडितः"
"अर्थात- सर्वनाश होते देख कर,विद्वान लोग आधा बचा लेते हैं, आधा छोड़ देते हैं"
अतः उन्होंने उस डूबते साथी के बाल पकड़कर सर काट लिया।
ध्यान में आया, भूल तो बहुत बड़ी हो गई। बहुत पश्चाताप हुआ। लेकिन क्या कर सकते थे?
जैसे तैसे रास्ता पार करते जो शेष बचे थे, वे एक गाँव में ठहरे। वहां के निवासियों ने उन्हें विद्वान समझ कर अपने घरों में भोजन के लिए आमंत्रित किया।
तीनों एक- एक घर में भोजन हेतु चले गए।
वहां पहले को आटे की लंबे तंतु जैसी 'सेवईं' की खीर परोसी गई। उसने खाने से पूर्व सोचा, भोजन ठीक तो है ना? कि, अचानक याद आया नीति वाक्य -"दीर्घ सूत्री विनश्यति "
अर्थात- "दीर्घ सूत्री का नाश होता है।" उसने भोजन करने से मना कर दिया।
वहीं दूसरे को बड़े-बड़े 'मालपुए' परोसे गए थे दूसरे घर में । उसने भी नीति वाक्य सोचा कि, "चिरण्युषम अतिविस्तार विस्तीर्ण तदभवेश" अर्थात -"बहुत फैली हुई वस्तु का सेवन करने वाला जल्दी मरता है"
उसने भी भोजन से मना कर दिया।
तीसरे व्यक्ति को तीसरे घर में 'बड़े' परोसे गए थे। उसने भी जब भोजन के बारे में सोचा,तो संस्कृत का नीति वाक्य स्मरण हुआ- "छिद्रष्वनर्था बहुली भवंति" अर्थात- "जिस वस्तु में बहुत छेद होते हैं, वह अनर्थकारी होती है"
तो उसने भी भोजन नहीं किया।
तीनों दुखी होकर घर पहुंचे,तो उनके विद्वान पिताओं ने उनकी कहानी सुनकर माथा पीट लिया और कहा -"मूर्खों! विद्या मनन करने के लिए होती है, केवल रटकर विद्वान नहीं हुआ जाता। उन सूत्रों के आध्यात्मिक अर्थ सामाजिक जीवन में दूसरे हैं,और तुमने उस अर्थ का अनर्थ कर डाला!"
आज के समय में भी शिक्षा बच्चों को उनके मानसिक,आध्यात्मिक विकास के हेतु नहीं दी जाती, अपितु केवल सांसारिक भाग दौड़ में कौन, किसे, कैसे, चतुराई से छले, यही प्रधानता हो गई है।
।।मनेन्दु पहारिया।।
21/08/2022
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