गोमती के निकटवर्ती भूखंड पर राज्य करने वाले राजा भौवन के राज्य में गौतम नाम का व्यक्ति रहता था । उसकी मणि कुंडल नामक सहपाठी से गहरी मित्रता थी। गौतम बाहर से तो बड़ा मृदुभाषी था लेकिन भीतर से कपटी। पर मणि कुंडल जैसा बाहर वैसा ही भीतर था।
दोनों मित्रों ने व्यापार करने के लिए विदेश जाने का निश्चय किया। मणि कुंडल ने अपने घर से धन ले लिया, पर गौतम ने कुछ न लिया। उसने यह बदनीयती बिचारी कि, जैसे भी होगा मैं मणि कुंडल का धन हरण कर वापस लौट आऊंगा।
राह चलते हुए एक दिन गौतम ने यह बहस छेड़ी, की धर्मात्मा होना व्यर्थ है, क्योंकि धर्म करने वाले सदा दुख भोंगते हैं। इसके विपरीत अधर्मी सुखी रहते हैं, इसलिए मनुष्य को धार्मिक नहीं होना चाहिए।
लेकिन मणि कुंडल धर्म की महत्ता पर जोर देने लगा। आखिर में दोनों ने निश्चय किया कि जिसकी बात ठीक हो वह दूसरे का धन ले देगा।
यात्रा करते हुए उन्हें रास्ते में जो भी मिलता उसी से पूछते, कि धर्म करने वाले सुखी रहते हैं या अधर्म करने वाले?
जिस से पूछा, उसने यही उत्तर दिया- भाई!धर्मात्माओं को तो कष्ट ही सहने पड़ते हैं, सुखी तो अधर्मी ही रहते हैं।
सब जगह जब यही उत्तर मिला तो शर्त के अनुसार गौतम ने मणि कुंडल का सारा धन ले लिया। लेकिन मणि कुंडल के विचार फिर भी ना बदले। वह कहता था धर्म बड़ा है अधर्म नहीं।
गौतम ने फिर कहा यदि तुम्हारा अभी यही विश्वास है तो फिर शर्त लगाओ, जो जीते वह दूसरे के हाथ काट ले।
राहगीरों से फिर वही पूछताछ शुरू हुई ।तब भी वही उत्तर मिले। लोग कहते -हमने तो अधर्मियों को ही आनंद से रहते देखा है। आखिर शर्त के अनुसार गौतम ने मणि कुंडल के हाथ काट लिए। अपने हाथ कटा कर भी मणि कुंडल अपने विश्वास पर अटल रहा।
अब फिर शर्त लगी कि जो जीते वह दूसरे की आंखें निकाल ले, और फिर जीतकर गौतम ने मणि कुंडल की आंखे निकाल ली। वह मणि कुंडल को असहाय अवस्था में निर्जन वन में एक शिवालय के पास छोड़कर वापस चल दिया।
अपने हाथ और नेत्र खोकर मणि कुंडल रो रहा था,और कह रहा था- हे भगवान! क्या सचमुच ही धर्म से अधर्म बड़ा होता है? अधर्म को अपनाने से गौतम को मेरा सारा धन मिल गया, और मैं धर्म पर आरूढ़ रहने के कारण नेत्रहीन,हाथ कटा कर दुख ढो रहा हूं!
उस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी थी। लंका के राजा विभीषण का पुत्र वैभीषिक उसी दिन शिवालय में पूजा करने आया करता था।
आज वह जैसे ही शिवालय पहुंचा, तो देखा कि एक नवयुवक मंदिर के पास पीड़ा से छटपटा रहा है। वैभाषिक ने अपनी आत्मशक्ति द्वारा सारी घटना जान ली। उसका हृदय दया से भर गया।
राम रावण युद्ध के समय लक्ष्मण को शक्ति लगने पर हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत को उठा कर लाए थे,जिस पर संजीवनी बूटी थी। शिवालय के पास संजीवनी का एक टुकड़ा गिरकर जम गया था। वैभीषिक उसे जानते थे। उन्होंने उस बूटी को लाकर घायल को पिला दिया।
बूटी के प्रभाव से मणि कुंडल के हाथ और नेत्र फिर से प्राप्त हो गए। वह हरे हरे कहता हुआ प्रसन्नता पूर्वक उठ कर बैठ गया। वैभीषिक के हाथ में संजीवनी बूटी का जो टुकड़ा शेष था उसने मणि कुंडल को देकर कहा- "बेटा! यह बूटी अंग भंग के अंगों को फिर जिंदा कर सकती है, इसे ले जाओ यह तुम्हें काम देगी।" अब तुम अपने घर वापस चले जाओ।
रास्ते में एक महापुर नामक राज्य पड़ता था। उस राजा के एक ही बेटी थी जो अंधी थी। राजा ने यह घोषणा कर रखी थी कि जो कोई उसकी आंखें अच्छी कर देगा उसी को मैं अपने बेटी ब्याह दूंगा और दहेज में सारा राज्य दे दूंगा।
मणि कुंडल ने सुना तो राजा के पास पहुंचा और बूटी पिला कर बेटी की आंखें अच्छी कर दी।
अब तो राज दरबार में आनंद छा गया। राजा ने धूमधाम से बेटी का विवाह मणि कुंडल से करके अपना राज्य उसे सौंप दिया।
उधर गौतम अपने मित्र का धन हरण करके घर पहुंचा और बुरी लत में पढ़कर पूरा धन गमाया और दरिद्र भिखारियों की तरह मारा मारा फिरने लगा।
मणि कुंडल को अपने मित्र की याद आई उसने रथ भेजकर गौतम को बुला भेजा। बड़े आदर से सत्कार कर उसे बहुत सा धन पुरस्कार में दिया और कहा-" मित्र वास्तव में धर्म करने वाले ही सुख पाते हैं। अधर्म से कोई मन का धन भले ही कर ले, पर वह अंत में दुख देकर विदा हो जाता है। धर्म की जड़ गहरी है, धर्म के वृक्ष वृक्ष पर फल आने में कुछ समय लगता है, पर वह बहुत समय तक फल देता रहता है।"
इसीलिए कहा गया है-:
"यतोधर्मस् ततो जया:"
।।। मनेन्दु पहारिया।
21/08/2022
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