11 वीं शताब्दी का द्वितीय दशक। सोमनाथ पट्टन निवासी 'विजय भट्ट' नामक विद्वान जब वेद पाठ करने बैठता, तो उसकी शूद्र सेविका के 8 वर्षीय पुत्र देवा का ध्यान बराबर उधर ही आकृष्ट हो जाता। बाल मन में वह भी उसकी तरह विद्वान बनने के सपने संजोने लगा।
मनुष्य में ज्ञान की भूख होना अस्वाभाविक नहीं, वह अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाना चाहता है,अविवेकी से विवेकी होना चाहता है। बालक देवा की यह मानव मन की सहज प्रेरणा थी।
एक दिन अवसर देखकर बालक ने डरते हुए विजय भट्ट से उसे भी संस्कृत पढ़ाने का निवेदन किया। भट्ट ने कहा -"तुम शूद्र हो, और शूद्रों को संस्कृत पढ़ने का अधिकार नहीं है।"
बालक उसका यह कठोर उत्तर सुनकर सकपका गया।
विजय भट्ट की एक कन्या 'शोभना', देवा की समवयस्क थी। वे उस कन्या को नित्य प्रति संस्कृत पढ़ाते। देवा ने पढ़ने की एक राह खोज ली। जब विजय भट्ट शोभना को संस्कृत पढ़ाते, तो वह भी मकान के एक कोने में छिप जाता और बड़े ध्यान से सुना करता, उसकी बातें।
कभी कुछ समझ में नहीं आता तो अवसर देखकर शोभना से पूछ लेता था।
बालकों का मन निर्मल होता है। वह अपने पिता की अनुपस्थिति में देवा को बता दिया करती।
जिज्ञासु, सचेष्ट देवा, एक दिन पंडित बन गया। देवा जब संस्कृत पढ़ गया और धर्म शास्त्रों को समझने लगा, तो उसने अपने समाज में ज्ञान प्रसार करना आरंभ किया।
एक शूद्र द्वारा वेद मंत्रों का उच्चारण करना, देव भाषा संस्कृत का अध्यापन करना, रूढ़िवादी पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होंने देवा को चेतावनी दी कि वह धर्म विरुद्ध कार्य न करें।
देवा ने उन्हें शास्त्रों के प्रमाण देकर बताया कि "शूद्र जन्म से नहीं कर्म से होते हैं।"
इस पर कुछ दुराग्रही लोगों ने उसे अपमानित किया।
अकारण अपमानित किए जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप देवा के मन में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हुई। किसी के स्वाभिमान पर चोट पड़ती है तो प्रतिकार करने की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। देवा के मन में भी सोमनाथ पट्टन के विद्वान वर्ग से प्रतिशोध लेने की अग्नि जल उठी।
दुर्योग से, अपमानित, तिरस्कृत, देवा की भेंट महमूद गजनवी के एक गुप्तचर से हो गई। महमूद गजनवी सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण करना चाहता था। गुप्तचर उसने इसी प्रयोजन से भेजे थे।
उसने अपने साथ हुए हिंदू समाज के दुर्व्यवहार की चर्चा उस गुप्तचर से की। उसने कहा -"तुम इतने विद्वान हो, फिर भी इन लोगों ने तुम्हें क्या दिया है? तिरस्कृत ही तो किया है! तुम मुसलमान क्यों नहीं बन जाते? हम तुम्हारे अपमान का बदला लेंगे।"
वह अपने अपमान का बदला लेना ही चाहता था। उसने इस्लाम अपना लिया और देवा से "फतेह मोहम्मद" हो गया।
अनहिलबाड़ पाटन नरेश, 'भीमदेव चालुक्य' ने, महमूद गजनवी के आक्रमण से सोमनाथ मंदिर की रक्षार्थ, अपनी सेना सजा रखी थी। अन्य क्षत्रिय नरेशों ने भी उसकी सहायता की। इस सुदृढ़ व्यवस्था के कारण महमूद गजनवी सोमनाथ की अपार संपदा प्राप्त करने,मंदिर पर अधिकार करने में सफल नहीं हो पा रहा था। फतेह मोहम्मद सोमनाथ पट्टन के सभी रहस्य जानता था।
जब गजनवी असफल होकर लौटने लगा, तो फतेह मोहम्मद ने कहा- 'निराश होने की आवश्यकता नहीं है! कल रात्रि मैं चलूंगा आपके साथ।' सबसे आगे मैं रहूंगा, आप अपने सैनिकों को मेरे पीछे कर दें।
महमूद गजनवी प्रसन्न हुआ और उसने लौटने का विचार त्याग दिया।
दूसरे दिन पूर्व योजना अनुसार, आगे आगे फतेह मोहम्मद और पीछे-पीछे म्लेच्छ सैनिक। वह मंदिर की रक्षार्थ बने हुए प्राचीर पर एक गुप्त स्थान देखकर चढ़ गया। थोड़े से सैनिक उसके पीछे चढ़ गए। उन्होंने भीतर जाकर प्रवेश द्वार खोल दिया। गजनवी की पूरी सेना बाढ़ की तरह अंदर घुस आई। सोमनाथ के मंदिर पर गजनवी का अधिकार हो गया, राजपूतों की हार हुई। सोमनाथ की मूर्ति तोड़ दी गई, असीमित धनसंपदा हीरे, जवाहरात, महमूद के हाथ लगे।
"जाति प्रथा और छुआछूत की इस भावना से हमारे देश का कितना अहित हुआ है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। यदि देवा के साथ वैसा दूर व्यवहार नहीं होता, तो वह क्यों इस्लाम धर्म अपनाता? क्यों अपमान की आग में जलकर महमूद गजनवी की सहायता करता? और गजनवी सोमनाथ पर विजय पाने, उसे लूटने, और खंडित करने में सफल क्यों होता?"
कहने की आवश्यकता नहीं, कि सोमनाथ के पतन भीमदेव चालोक्य की पराजय, और लुटेरे महमूद की सफलता में, तत्कालीन रूढ़िवादिता, अस्पृश्यता, व संकीर्णता, सहायक हुई थी।
आज के परिवेश में इस पर गंभीरता से मनन करने की आवश्यकता है, क्योंकि हिंदू समाज पर पुनः चौतरफा आक्रमण हो रहे हैं।
।। मनेन्दु पहारिया।।
21/08/2022
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