मृत आत्मीय जनों के प्रति मोह स्वाभाविक होता है। ऐसे विरले ही होते हैं जो उस बेला में अपने आप को संतुलित रख, होनी को स्वीकार करते हैं। मरण को स्वाभाविक क्रिया मानकर जीवात्मा की शास्वतता, चिरंतन्ता, को स्वीकार किया जाना चाहिए।इस तथ्य की पुष्टि अनेकों पौराणिक आख्यानो से होती है।
राजा प्रद्युम्न बीमार पड़े। बहुत चिकित्सा कराने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ, अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए। राजमहल शोक में डूब गया। रानी, राजपुत्रों, समेत सभी विलाप करने लगे। सोचने लगे किसी प्रकार राजा का मृत शरीर पुनर्जीवित हो उठे।
उन दिनों महर्षि पुरन्ध्र अनेक रिद्धि सिद्धियों के अधिष्ठाता थे। उनकी कृपा से बड़ी से बड़ी विपत्ति टल जाने एवं असंभव भी संभव हो जाने की ख्याति फैली हुई थी।
संयोगवश राजा की मृत्यु के तुरंत बाद वे उधर आ निकले। उन्होंने उचित समझा कि शोक संतप्त परिवार को सांत्वना दी जाए एवं राज्य की भावी व्यवस्था की रूपरेखा देख ली जाए। मृत राजा उनके भक्तों में से एक थे।
महर्षि पुरन्ध्र का आगमन सभी लोगों में आशा का संचार कर गया। सभी एक स्वर से, एक ही निवेदन करने लगे कि, किसी प्रकार राजा को पुनर्जीवित कर दिया जावे।
महर्षि ने लाख समझाया, जन्म मरण की अनिवार्यता का विवेचन किया, धैर्य बंधाते रहे, पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सभी का आग्रह एक ही था कि, राजा को जीवित कर दिया जाए।
पीछा छूटने का मार्ग ना दिखने पर और स्वजनों का अत्यधिक मोह दिखाई पड़ने पर, महर्षि एक शर्त पर तैयार हुए कि, राजा की आत्मा ने जिस नए शरीर में जन्म लिया वहां सब लोग मिलकर चलें और उनसे वापस लौट चलने का अनुरोध करें। यदि वे स्वीकार कर लेंगे, तो उनका नया शरीर नष्ट करके पुराने में लौट आने की व्यवस्था बनाने का प्रयास करें।
राजा प्रदुम्न ने एक पेड़ पर काष्ठ कीट के रूप में जन्म ले लिया था। समूचा राजपरिवार उस कीड़े को देखने पहुंचा। महर्षि ने यह सुविधा बना दी थी कि कीट के साथ उपस्थित परिवार जनों का संभाषण संभव हो सके।
यह ज्ञात होते ही की यह काष्ठ कीट ही राजा प्रदुम्न है, सभी परिजन उनसे वापस लौट चलने का आग्रह करने लगे। उनके नए शरीर को नष्ट करने के लिए सभी उतारू थे और बार-बार आश्वस्त कर रहे थे कि आपकी पुरानी काया को हमने संभाल कर रखा है।
कीट शरीर धारी राजा ने कहा- सज्जनों! आप व्यर्थ मोह कर रहे हैं! अब मेरा पिछले परिवार जनों से कोई लगाव नहीं रहा, आप सबको तो मैं जानता तक नहीं हूं। नई काया व नए परिसर में रहते हुए ही मुझे संतोष है। अपना परिवार भी शीघ्र बसा लूंगा, इसमें आप व्यवधान मत डालो। प्रस्तुत चोले में परिवर्तन की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है।
सभी हतप्रभ थे। महर्षि ने पहले ही यह व्यवस्था बना दी थी कि राजा वापस लौटने को तैयार होंगे, तो ही उन्हें पुराने शरीर में ले जाया जाएगा।
जब देखा कि राजा को पुराने संबंधियों से कोई लगाव नहीं रहा, तो सभी अपना हठ छोड़, दुखी मन से वापस लौट आए।
प्रद्युम्न के मृत शरीर का अंत्येष्टि संस्कार किया गया। कुटुंबियों का शोक क्रमशः घटता गया। सभी को यह बात भली प्रकार समझ में आ गई कि, जो जिस योनि में रहता है, वहीं उसे प्रिय लगने लगती है। आत्मा का न कोई घर संबंधी होता है, ना रिश्तेदार, अतः मृत परिजन के प्रति व्यर्थ मोह ना कर, उचित अंतिम कर्म आदि कर, मोह से मुक्ति, एवं मृत आत्मा को शांति दी जानी चाहिए। अर्थात भूतकाल को भुलाया ही जाना उचित होता है।
।। मनेन्दु पहारिया।।
26/08/2022
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