।।108।। बोध कथा। 🌺🏵 अथातो ब्रह्म जिज्ञासा 🏵🌺



"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" तात! जिसकी ब्रह्म दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है। ब्रह्म ही क्यों, वत्स! जिज्ञासा तो मनुष्य को किसी भी कला, किसी भी विद्या, में पारंगत बना देती है। 

हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम आश्रम में रहो और तप करो, एक दिन तुम्हें निश्चित ही भगवान का साक्षात्कार होगा। 

यह कहकर महर्षि ऐलूष ने राजकुमार नीरव्रत की पीठ पर हाथ फेरा और उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों की तरह, छात्रावास के एक सामान्य कक्ष में रहने का प्रबंध कर दिया।


नीरव्रत ने पहली बार अपना सामान अपने हाथों से उठाया।  प्रथम बार एक ऐसे निवास में ठहरे जिस निवास में दास दासी  नही थे। नीरव्रत ने उस दिन सादा भोजन लिया। 

 सायंकाल होने में विलंब लगा होगा, पर जीवन की इन प्रारंभिक विपरीत दिशाओं ने मस्तिष्क में क्रांति, विचार मंथन, प्रारंभ कर दिया। इतना शुष्क जीवन नीरव्रत ने पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए उससे अरुचि होना स्वाभाविक ही था।


 शयन में जाने से पूर्व उन्होंने एक अन्य स्नातक को बुलाकर पूछा -तात आप कहां से आए हैं ?आपके पिता क्या करते हैं? आश्रम में निवास करते आपको कितने दिन हो गए? क्या आपने सिद्धि प्राप्त कर ली? क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया?


 प्रश्न करने की इस शैली पर स्नातक को हंसी आ गई, उसने कहा "मित्र! शेष प्रश्नों का उत्तर बाद में मिलेगा, अभी आप इतना ही समझ ले, मैं उप कौशल का राजकुमार हूं, और यह मेरा समापन वर्ष है जब आप यहां प्रवेश ले रहे हैं।"

 तरुण स्नातक ने अपने तेजस्वी ललाट और उन्नत वक्ष स्थल को ऊपर उठाया तथा ऋषि ऐलूष जहां रहते थे उस ओर चला गया। 


नीरव्रत किंकर्तव्यविमूढ़! वस्तुतः मुखाकृति राजकुमारों से कम नहीं, पर यह सभी स्नातक इतनी सरल वेशभूषा में, इतने मोन धारी, और इतने अनुशासन बद्ध!  क्या इनकी अपनी इच्छाएं कुछ है ही नहीं?

 सच पूछा जाए तो नीर व्रत का माथा फट गया होता, इस तरह के प्रश्नों से, किंतु अच्छा हुआ उन्हें निद्रा देवी ने विश्राम दे दिया।


 प्रातः काल सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व ही जब भगवती उषा के आगमन की तैयारी हो रही थी, सब स्नातक जाग गए। प्रार्थना हुई, उसी हलचल में नीरव्रत की निद्रा टूट गई। निद्रा का त्याग किया। शौच,  स्नान से निवृत्त होकर वह गायत्री वंदन के लिए आसन पर जा बैठे। 


आज आश्रम का प्रथम दिन था। ध्यान तो नहीं लगा, पर चिंतन से एक बात सामने आई- जब देह नष्ट हो जाती है, तब भी क्या राजा-रंक, स्त्री-पुरुष, वाल-वृद्ध, का भेद रह जाता है, नहीं। फिर मेरे राजकुमारत्त्व को क्या अमर रहना है, नहीं-नहीं। मन ने आगे कहा नहीं। जीवन के दृश्य भाग नश्वर हैं, क्षणिक हैं, असंतोषप्रद हैं, जब तक मनुष्य पूर्णता प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसे ऐसी कोई मान्यता नहीं बना लेनी चाहिए। 

इस चिंतन से कल वाला बोझ हल्का हो गया । राजकुमार नीरव्रत ने मान लिया कि वह भी शरीर में अभिव्यक्त अव्यक्त आत्मा है, और उसे पाने के लिए अहम भाव छोड़ना ही पड़ता है। 


किंतु यह अहम भाव भी कितना बलवान है कि। मनुष्य को बार-बार अपने शिकंजे में कसता ही रहता है। उसमें यदि कोई बचाव कर पाता है तो वह है निरंतर विचार भावनाओं के प्रभाव और प्रबल निष्ठायें। नीर व्रत ने विचार करने की कला सीखी,  भावनाओं को उभार देना सीखा, तो भी अहंकार का अपराध अभी पीछा नहीं छोड़ रहा था। वह कभी-कभी सह स्नातकों से ही झगड़ा कर बैठते, कभी-कभी शिक्षकों से भी दुराग्रह कर बैठते।

 उस समय उन्हें लगता कि, उनके पक्ष में न्याय है। पर जब भी वह विचार की तुला उठाते और विराट जीवन की तुलना में अपनी छोटी सी इकाई को तोलते, तो अहंकार तिरोहित हो जाता। मान-मर्यादा, मोह, दुराग्रह, सब कुछ तिरोहित हो जाता। नीरव्रत अपने को शुद्ध, चेतन, अद्वैत आत्मा अनुभव करते। शिक्षण का यह क्रम ही उनकी अंतर को परिवर्तित परिष्कृत और विकसित करता हुआ चला जा रहा था।


आश्रम का नियम था कि सभी स्नातक भिक्षाटन के लिए जाया करते थे। तब भिक्षा केवल सत्कार्य के लिए सन्यासियों को भोजन के रूप में, और आश्रम वासी ब्रह्मचारियों को धान्य के रूप में दी जाती थी, इसके अतिरिक्त और कोई भी व्यक्ति भिक्षा नहीं मांग सकता था। आश्रम राजाओं के दान से चलते थे तो भी यह परंपरा थी कि, स्नातक अपने आपको समाज का एक बालक ही समझे, कभी अहंकार ना करें, इसीलिए भिक्षावृत्ति प्रत्येक स्नातक के लिए आवश्यक थी।


 नीरव्रत को इस तरह का आदेश प्रथम बार मिला था। एक बार उनका वर्षों का प्रसुप्त अहंकार जाग पड़ा।  'एक राजकुमार कभी भिक्षा नहीं मान सकता।' इस तरह का प्रतिवाद उनके अंतरमन ने किया था, किंतु पुनश्च वही "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।"

 नीरव्रत को अपने आप को दबाना ही पड़ा।


 भिखारी नीरव्रत भिक्षा पात्र लिए एक ग्राम में प्रविष्ट हुए। किसी के दरवाजे जाते उन्हें लज्जा अनुभव हो रही थी। ग्राम प्रमुख की कन्या विद्या ने उनके संकोच को पहचाना। उसने एक मुट्ठी धान्य लिया और नीर व्रत के समीप ले जाकर भिक्षा पात्र में ना डालकर भूमि पर गिरा दिया।

 स्नातक ने पूछा- भद्रे! यदि जानबूझकर अन्न को फेंकना ही था, तो आप उसे लेकर यहां तक आईं ही क्यों?


 विद्या ने हंसकर उत्तर दिया-तात!  में ही क्यों, संसार ही ऐसा करता है, हमने जीवन किसके लिए ग्रहण किया और उसका उपयोग कहां करते हैं? हम किस उद्देश्य से आते हैं और वह उद्देश्य पूरा करते हमे कितना संकोच, कितना भारीपन लगता है,क्या यह धान्य बाहर गिराने की तरह का ही अपराध नहीं हुआ?


 नीरव्रत की आंखें खुल गई। किसी भी लक्ष्य को प्राप्ति के लिए दृढ़ता अपेक्षित है, ऐसा निश्चय कर लिया। उनकी लज्जा और उनका अहम भाव घुल गया और वे प्रसन्नता पूर्वक साग्रह भिक्षाटन के लिए आगे बढ़ गए।


 भिक्षा पात्र को आश्रम के कोष में पहुंचा कर नीरव्रत उस बोझ से हल्के हो चुके थे, जिसने अब तक के जीवन को जटिल, भ्रम पूर्ण, और असंतोष में रखा था । 


नीरव्रत जब सायं कालीन संध्या करने के लिए बैठे तो शून्य की शांति में इस तरह खो गए  जैसे उनका वाह्य जीवन से संबंध ही ना रहा हो। उनकी इंद्रियां, उनका मन, उनकी संपूर्ण चेतना, देह के हम भाव से उठकर अनंत अंतरिक्ष में फैल गई थी। वे अब संकीर्ण परिधि में से निकल कर अनंतता की अनुभूति कर रहे थे। अपने आप को निर्मल, स्वच्छ, धुला हुआ, शांत, संतुष्ट, और बहुत हल्का फुल्का अनुभव कर रहे थे।


।। मानेन्दु पहारिया।।

    14/01/2023

Post a Comment

और नया पुराने