।।109।। बोध कथा।। 💐🏵भोगे बिना छुटकारा नहीं 🏵💐


दोनों सगे भाई थे। गुरु और माता-पिता के द्वारा शिक्षा पाई थी, पूजनीय आचार्यों से प्रोत्साहन पाया था, मित्रों द्वारा सलाह पाई थी। 

उन्होंने वर्षों के अध्ययन, चिंतन, अन्वेषण, मनन, के पश्चात जाना था कि दुनिया में सबसे बड़ा काम जो मनुष्य के करने का है वह यह है कि, अपनी आत्मा का उद्धार करें। 

मूर्ख ये नहीं जानते। के पत्तों को सींचते हैं तो पेड़ मुरझा जाता है। 

वे दोनों भाई शंख और लिखित इस तत्व को भली प्रकार जान लेने के बाद, तपस्या करने लगे। पास पास ही दोनों के कुटीर थे। मधुर फलों के वृक्षों से वह स्थान और भी सुंदर और सुविधाजनक बन गया था। दोनों भाई अपनी-अपनी तपोभूमि में तप करते और यथा अवसर आपस में मिलते जुलते। 


एक दिन लिखित भूखे थे। भाई के आश्रम में गए और वहां से कुछ फल तोड़ लाए। उन्हें खा ही रहे थे कि शंख वहां आ पहुंचे। उन्होंने पूछा- यह फल तुम कहां से लाए?

लिखित ने उन्हें हंसकर उत्तर दिया- तुम्हारे आश्रम से।

 शंख यह सुनकर बड़े दुखी हुए। फल  कोई बहुत मूल्यवान वस्तु ना थी। दोनों भाई आपस में फल लेते देते भी रहते थे, किंतु चोरी से बिना पूछे नहीं।

 उन्होंने कहा भाई यह तुमने बुरा किया। किसी की वस्तु बिना पूछे लेने से तुम्हें चोरी का पाप लग गया।


 लिखित को अब पता चला कि वास्तव में उन्होंने पाप किया और पाप के फल को बिना भोग छुटकारा नहीं हो सकता।

 दोनों इस समस्या पर विचार करने लगे कि,अब क्या करना चाहिए।

 पाप का फल तुरंत मिल जाए तो ठीक,वरना प्रारब्ध में जाकर वह बढ़ता ही रहता है और आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। 

निश्चय हुआ कि इस पाप का फल सिद्धि भोग लिया जाए।


दंड देने का अधिकार राजा को होता है,इसलिए लिखित अपने कार्य का दंड पाने के लिए राजा सुद्दुम्न के पास पहुंचे। इस तेजमूर्ति तपस्वी को देखकर राजा सिंहासन से उठ खड़े हुए और बड़े आदर के साथ उन्हें उच्च आसन पर बिठाया,तदुपरांत राजा ने हाथ जोड़कर तपस्वी से पूछा -"महाराज मेरे योग्य क्या आज्ञा है?"


 लिखित ने कहा-" राजन मैंने अपने भाई के पेड़ से चोरी करके फल खाए हैं, तो मुझे दंड दीजिए! इसलिए आपके पास आया हूं।" 

राजा बड़े असमंजस में पड़ गए। इस छोटे से अपराध पर इतने बड़े तपस्वी को वह क्या दंड दें! और वह भी ऐसे समय जबकि वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार करते हुए दंड पाने के लिए आया है।


 राजा कुछ भी उत्तर ना दे सके। तपस्वी ने उनके मन की बात जान लिया और उन्होंने न्यायाधिपथी से स्वयं ही पूछा कि-" बताइए शास्त्र के अनुसार चोरों को क्या दंड दिया जाता है?"

न्यायाधीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे,शास्त्र का चोर प्रकरण निकाल लाए। उसमें लिखा था कि,  चोर के हाथ काट लिए जाएं। 

"यही दंड मुझे मिलना चाहिए, तपस्वी ने कहा, न्याय दंड किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। व्यक्तियों का ख्याल किए बिना निष्पक्ष भाव से जो व्यवहार किया जाता है वही सच्चा न्याय है। राजन तुमने मुझसे आते समय यह पूछा था मेरे योग्य क्या आज्ञा है! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि शीघ्र ही मेरे दोनों हाथ कटवा डालो!"


 राजा को विवश हो तपस्वी की आज्ञा पालन करना पड़ी। 

अपने अपराध का दंड पाकर तपस्वी लिखित प्रसन्नता पूर्वक आश्रम को लौट आए। 

 अपने भाई की कर्तव्य परायणता और कष्ट सहनशीलता को देखकर शंख का गला भर आया और वे उनके गले से लिपट गए।

 शंख ने कहा -"अपराधी हाथों को लेकर जीने की अपेक्षा, बिना हाथों के जीना अधिक श्रेष्ठ है, लिखित! पाप का फल पाकर अब तुम विशुद्ध हो गए हो।"


शंख की आज्ञा अनुसार लिखित ने पास की नदी में जाकर स्नान किया। स्नान करते ही उनके दोनों हाथ फिर वैसे ही उग आए।

वे दौड़े हुए भाई के पास गए और उन्हें हाथों को आश्चर्य पूर्वक दिखाया।

 शंख ने कहा- भैया! "इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम लोगों की तपस्या के कारण ही आज छतिपूर्ति हुई है।"

 तब लिखित ने और अधिक अचंभित होकर पूछा -"यदि हम लोगों की इतनी तपस्या है, तो क्या उस के बल से इस छोटे से पाप को दूर नहीं किया जा सकता था?"

 शंख ने कहा- "नहीं! पाप का परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता।"


काश!  हमारे देश के नेता, अधिकारी, और शासन संचालन करने वाले, इस बात को समझ पाते। 


।।पुरुषोत्तम शर्मा।।

   25/02/2023

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