देवसेना का संचालन एक मनुष्य को सौंपकर हमें अपयश का पात्र ना बनाएं देवराज! क्या संपूर्ण देवलोक में एक भी देवता ऐसा नहीं रहा, जो देव सेना का संचालन कर सके? क्या हमें एक मनुष्य की अधीनता स्वीकार करनी ही पड़ेगी?
देवराज इंद्र के समक्ष खड़े सहस्त्रों देवताओं ने एक स्वर में प्रश्न किया और लज्जा बस अपने शीश नीचे झुका लिए।
हम विवश हैं देवताओं! इन्द्र आहत स्वर में बोले, प्रजापति ब्रह्मा की ऐसी ही इच्छा है। उनका कथन है कि संयम में डूबे देवगण जब अपनी सामर्थ्य नष्ट कर डालते हैं, तब उनकी रक्षा भी कोई मनुष्य ही करता है।
महाराज मुचकुंद यद्यपि मनुष्य हैं, पर संयम और पराक्रम में उन्होंने देवताओं को भी पीछे छोड़ दिया है। इसलिए आज संपूर्ण पृथ्वी और देवलोक में उनके समान प्रतापी एवं बलशाली और कोई दूसरा नहीं रहा।
प्रजापति का कथन है कि संयमी और सदाचारी व्यक्ति, मनुष्य तो क्या देव दनुज सभी को परास्त कर सकता है। अतः हम विवश हैं उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो नहीं रहा।
दूसरे दिन युद्ध के लिए देव सेना चली, तब उनका संचालन महाराज मुचकुंद कर रहे थे। संयम और तप का अपूर्व तेज उनके मुख मंडल पर चमक रहा था। मनुष्य शरीर होते हुए भी वे साक्षात देव प्रतिमा से लग रहे थे। प्रशन्न चित्त मुचकुंद ने युद्ध की इच्छा से शंख ध्वनि की, तो संपूर्ण दिशाएं प्रकंपित हो उठीं। असुरों के हृदय विदीर्ण करने वाला यह नाद सुनकर, देवगण पुलकित हुए, उन्हें अपनी विजय का विश्वास हो गया।
एक माह तक घनघोर युद्ध हुआ। असुरों की सेना सम्राट मुचकुंद ने ऐसी बिगाड़ डाली, जैसे जंगली सूअर हरी-भरी खेती को। कई सेनापति बदल डाले असुरों ने, पर मुचकुंद के पराक्रम के आगे एक ना चली। सारे संसार में एक ही स्वर गूंज रहा था, धन्य हो मुचकुंद का संयम, इंद्रिय विजय, और धन्य हो उसका शौर्य, जिसने देव, दनुज दोनों को ही लज्जित करके रख दिया।
इधर अपनी प्रशंसा सुनते सुनते मुचकुंद के मन में अहंकार बढ़ने लगा। प्रजापति ब्रह्मा ने मुचकुंद के हृदय में पनप रहे विष बीज को देखा, तो वे चिंतित हो उठे।
उन्होंने पुनः इंद्र को बुलाया और कहा-मुचकुंद की साधना अधूरी रह गई लगती है। संयमी और पराक्रमी होने के साथ उसे निरअहंकारी भी होना चाहिए था। संयम से ही स्वर्ग जीते जाते हैं। तो अब तुम अभिलंब स्वामी कार्तिकेय के पास जाओ और उन्हें सैन्य संचालन के लिए राजी कर लो।
इंद्र द्वारा उक्त कथन से असहमत होने पर, ब्रह्मा जी ने मनुष्य में अहंकार से ही उसके पतन होने की बात समझाई। तब देवराज इंद्र ने विधाता की आज्ञा स्वीकार कर वहां से चल पड़े।
लौटने पर ज्ञात हुआ कि वस्तुतः प्रजापति का अनुमान गलत नहीं था। कल तक केवल युद्ध में ही अपना ध्यान लगाने वाले मुचकुंद, आज अहंकार बस सुरा और सुंदरियों की लपेट में आ गया है, और अपनी सारी शक्ति उसी में नष्ट कर रहे हैं। देवराज तत्काल लौटे और भगवान कार्तिकेय को सैन्य संचालन के लिए राजी कर, देवताओं की जागरूकता ने उन्हें बचा लिया, अन्यथा मुचकुंद ने तो बीच में ही नाँव डुबो दी होती।
मुचकुंद को असुरों ने बंदी बनाकर पुनः पृथ्वी पर जा पटका, तब उन्हें अपनी भूल का पता चला। किंतु अब पश्चाताप से भी तो कुछ नहीं हो सकता था।
निराश मुचकुंद के पास प्रजापति ब्रह्मा स्वयं पहुंचे और बोले- तात! तुम्हारी साधना अधूरी रह गई थी, उसी का यह फल है। अब फिर से शक्ति की साधना प्रारंभ करो! पर देखना इस बार अहंकार भूलकर भी ना करना, क्योंकि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अहंकार ही होता है।
।। मनेन्दु पहारिया।।
11/10/2022