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।।062।। बोध कथा। 🌺💐 विभूति का दुरुपयोग ना हो 💐🌺


धर्म निष्ठा और तप साधना के प्रतिदान के फलस्वरूप महाराज युधिष्ठिर को अक्षय पात्र मिल गया। अक्षय पात्र की विशेषता यह थी कि उससे जब भी मांगा जाता, वह स्वादिष्ट और मधुर व्यंजन प्रदान करता।

 परीक्षा हेतु उसी दिन हस्तिनापुर की समग्र जनता को मनपसंद व्यंजन और पकवान ग्रहण करने का सार्वजनिक निमंत्रण दिया गया।

 हर किसी को इस अक्षय पात्र से लाभ उठाने की छूट थी। अक्षय पात्र अपने ढंग से प्रयुक्त होता रहा था। और तो सब ठीक ढंग से चल रहा था, लेकिन युधिष्ठिर को अनुभव होने लगा कि, मुझ जैसा कोई दानी नहीं है। 


इस दंभ को पुष्ट करता रहा आश्रित जनों का जयगान।

 एक व्यक्ति ही किसी की प्रशंसा करने लगे तो मनुष्य का भाल गर्व से उन्नत होने लगता है। फिर वहां तो 16000 समाज के प्रबुद्ध व्यक्ति युधिष्ठिर का यशोगान करते थे।

 यह ठीक है कि युधिष्ठिर ने अपने जीवन का एक बड़ा भाग कठोर तप साधनाओं में गुजारा था, परंतु कुछ कमजोरियां अभी भी शेष थी, जिन्हें विजित करना, और उनमें से एक था वह सात्विक अभिमान। 


भगवान कृष्ण ने जब यह देखा कि,  धर्मराज अभिमान के मद में चूर होते जा रहे हैं तो उन्हें अच्छा न लगा। भगवान प्रणत जनों की सब ओर से रक्षा करने वाले हैं, उन्हें यह सहन भी कैसे होता कि एक साधारण सी बात उनके शिष्य के पतन का कारण बने। 

उनकी दृष्टि में अक्षय पात्र और 16000 प्रबुद्ध जनों का प्रतिदिन भोजन तो साधारण बात है।


 कई बार भगवान ने उन्हें संकेत रूप में समझाया भी,  परंतु युधिष्ठिर समझने में असमर्थ ही रहे। 

एक बार अवसर देखकर श्री कृष्ण ने प्रत्यक्षतः भी कहा कि, धर्मराज! मैं मानता हूं कि याचकों के लिए और अपनी प्रजा के लिए भोजन की व्यवस्था कर, पुण्य कार्य में संलग्न हो, परंतु उसके लिए अभिमान नहीं करना चाहिए।


 परंतु प्रभु मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं की, जिससे अभिमान टपकता हो, युधिष्ठिर ने कहा।

 अभिमान बातों से नहीं, क्रियाओं से व्यक्त होता है, भगवान ने कहा, और युधिष्ठिर को लेकर महाराज बलि के पास पहुंचे। 

बलि को युधिष्ठिर का परिचय देते हुए उन्होंने कहा- यह है पांडवों में अग्रज महादानी युधिष्ठिर। इनके दान से मृत्युलोक के प्राणी इतने उपकृत हो रहे हैं कि, वे तुम्हारा स्मरण भी नहीं करते।

 "परंतु मैंने स्मरण किए जाने जैसा काम भी क्या किया है प्रभु! मैंने वामन को केवल तीन पग जमीन देने का वचन दिया था और वही पूरा किया भी। अब यह बात अलग है कि वे विराट बन गये। "


 "तुमने सब कुछ खोकर भी अपना वचन पूरा किया, इसलिए तुम्हारी ख्याति अमर हुई। धर्मराज की कीर्ति भी तुम्हारे यश की होड़ कर रही है। तुम दोनों पुण्य आत्माओं का मिलन निश्चय ही सौभाग्य है।"


बलि ने युधिष्ठिर की कोई पुण्य गाथा भगवान से सुनाने को कहा।

 भगवान कृष्ण ने उनके पूर्व जीवन का संपूर्ण विवरण क्रमवार सुनाया और अक्षय पात्र 16000 याचकों को भोजन कराने का नियम, परंपरा, का भी उल्लेख किया। 


युधिष्ठिर के चेहरे की दर्प भरी मुस्कान तब विलुप्त हो गई, जब दानवेंद्र बलि ने कहा- "आप इसे दान कहते हैं? लेकिन यह तो महापाप है!"

 आगे स्पष्ट करते हुए महाबली ने कहा- "धर्मराज! केवल अपने दान के दंभ को पूरा करने के लिए याचकों को या अन्य लोगों को आलसी बनाना पाप ही है। मेरे राज्य में तो याचक को नित्य भोजन की सुविधा दी भी जाए तो भी वह स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि वह अपना कर्म संपादित करने के पश्चात, उपार्जित धन को ही अपने भोजन के लिए प्रयुक्त करेगा।"


 युधिष्ठिर का मद चूर हो गया और वे चू़कि धर्मावतार थे, उसी रूप में पुनः पुण्य पुरुषार्थ में विनम्रता पूर्वक जुट गए।


।। मनेन्दु पहारिया।।

 10/10/2022

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