।।061।। बोध कथा।। 🌺💐 पहले स्वयं को जीतो 💐🌺


आप की विजय सराहनीय है महाराज! आप सचमुच वीर हैं। ऐसा ना होता तो आप मालव नरेश को 3 दिन में ही कैसे जीत लेते!राजपुरोहित पर्णिक ने महाराज सिंधुराज की ओर किंचित मुस्कुराते हुए कहा।

 बात को आगे बढ़ाते हुए वे बोले- "लेकिन  सेना की विजय से भी बढ़कर विजय, मन की है, जो काम, क्रोध, लोभ और मोह जैसी सांसारिक ऐषणाओं को जीत लेता है, वही सच्चा शूरवीर है। उस विजय के आगे यह रक्तपात वाली, हिंसा वाली, शक्ति वाली, विजय नगण्य सी लगती है।"


महाराज सिंधु राज ने कवच परिचारक को देते हुए कहा- आचार्य प्रवर! हम वैसी विजय भी करके दिखला सकते हैं। लगता है आपने हमारे पराक्रम का मूल्यांकन नहीं किया। सम्राट के स्वर में अहंकार मिश्रित रूखापन था।

 

राजपुरोहित की सूक्ष्म दृष्टि महाराज के उस मनोविकार को ताड़ गई, इसीलिए वे निःशंक बोले -"आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता आर्य श्रेष्ठ! अभी एक दशक ही तो बीता है आपको सिंहासन पर बैठे, किंतु इस बीच आप ने कलिंग, सौराष्ट्र, मालव, विंध्य, पंचनद,  सभी प्रांत जीत डालें, क्या यह सब पराक्रमी होने का प्रमाण नहीं? किंतु यदि आप एक बार महर्षि बेन के दर्शन करके आते, तो पता चलता, कि वे आप से भी कहीं अधिक पराक्रमी, विजई हैं। उन्होंने राग, द्वेष, संपूर्ण ऐषणाओं पर विजय पा ली है।"


 सिंधु राज को अपने सामने, वह भी राजपुरोहित के मुख से किसी और की प्रशंसा अच्छी ना लगी। 

उन दिनों राजपुरोहित राज्य की आचार संहिता के नियंत्रक हुआ करते थे।  सिंधुराज उनका कुछ कर नहीं सकते थे, तो भी उन्होंने महर्षि बेन के दर्शन का निश्चय कर लिया। 


सूर्योदय होने में अभी थोड़ा विलंब था। महाराज सिंधुराज अस्तबल पहुंचे। वहां उनका अश्व सजा हुआ तैयार था, वे उस पर आरूढ़ होकर महर्षि बेन के आश्रम की ओर चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध दिखाई दिए, जो मार्ग में पड़े कांटे, कटीली झाड़ियां, साफ कर रहे थे। 

 महाराज ने पूछा-ओ वृद्ध! महान तपस्वी बेन का आश्रम किस ओर है?

 वृद्ध ने एक बार महाराज की ओर देखा, फिर अपने काम में जुट गए।  महाराज को यह अवहेलना अखिरी,उनका अहंकार जाग उठा, बोले- शठ! देखता नहीं मैं यहां का सम्राट हूं । बता महर्षि बेन का आश्रम किधर है?

 वृद्ध ने पुनः आँख उठाई,होठों पर एक हल्की मुस्कुराहट तो आई, फिर भी उसी तरह अपने काम में जुट गए। 


महाराज का क्रोध सीमा पार कर गया। घोड़े को वृद्ध की ओर दौड़ा दिया, अश्व उन्हें रोंदता हुआ आगे बढ़ गया।  इस बीच महाराज ने अपनी चाबुक से वृद्ध पर प्रहार भी किया और अपशब्द कहते हुए आगे बढ़ गए। 

अभी थोड़ा ही आगे गए थे कि, महर्षि की प्रतीक्षा करते उनके शिष्य दिखाई दिए।

 महाराज ने पूछा -आपके गुरु बेन कहां हैं?

 शिष्यों ने बताया- वे प्रतिदिन हम लोगों से पहले ही उठकर मार्ग साफ करने निकल जाते हैं। आप जहां से आए हैं वह उसी दिशा में होंगे।


 और तब महाराज का क्रोध पश्चाताप में बदल गया। दें उन्हीं पैरों लौटे, महर्षि उठकर खड़े हो गए थे और पुनः कटी हुई झाड़ियों ठिकाने लगा रहे थे। 

घोड़े से उतरकर महाराज उनके चरणों पर गिरकर क्षमा मांगने लगे। बोले- भगवान!पहले ही बता देते कि आप ही महर्षि बेन हैं, तो यह अपराध क्यों होता?

 बेन मुस्कुरा कर बोले- बेटा! तूने मेरी प्रशंसा की, उससे मेरे मन में अहंकार उठा, उसे मारने के लिए यह आवश्यक ही था, तेरा उपकार जीवन भर नहीं भूलूंगा। 


 महाराज आज पानी पानी हो गए, उन्होंने अनुभव किया कि, सच्ची वीरता दूसरों को नहीं, अपने को जीतने में है।


।। मनेन्दु पहारिया।।

09/10/2022

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