मधु, दैत्य होते हुए भी दयालु, भगवत भक्त, और अहिंसक था। अकूत वैभव का मालिक भी था। उसे अलौकिक शक्ति प्राप्त करने की चाह थी, अतः कठोर तपस्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया और शंकर ने उसे अपना त्रिशूल दे दिया, कहा- "जब तक यह त्रिशूल तुम्हारे हाथ में रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा।" मधु ने प्रार्थना की, भगवन! यह त्रिशूल सदा हमारे ही वंश में रहे, ऐसा वरदान दीजिए। शंकर जी बोले, ऐसा नहीं हो सकता। यह अवश्य है कि, यह त्रिशूल तुम्हारे पुत्र के पास रहेगा। इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए। मधु प्रसन्न होकर राजधानी लौटा। सुख शांति से अपना राज किया। दूसरों की विपत्ति निवारण, कमजोरों की रक्षा, दुष्टों को दंड, की व्यवस्था की। उसका एक पुत्र हुआ, नाम था लवणासुर। जो अपने पिता से स्वभाव में विपरीत था। क्रोधी, निर्दयी, पाप परायण,और दुराचारी। त्रिशूल उसके हाथ में आते ही उसका अत्याचार कई गुना बढ़ गया। प्रजा हाहाकार करने लगी। ऋषि मुनि घबराए। उसी समय अयोध्या में राजा राम राज्य करते थे। सभी ऋषि-मुनियों ने च्यवन ऋषि की अगुवाई में, अयोध्या पहुंचकर अपनी करुण कथा सुनाई। जिससे रामचंद्र जी
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