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लेख : संविधान और उसके स्तंभ - लेखिका दिप्ती डांगे मुंबई महाराष्ट्र

 लेख 

संविधान और उसके स्तंभ

लेखिका दिप्ती डांगे मुंबई महाराष्ट्र

          भारत को 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों से आजादी तो मिल गयी परंतु जब तक देश को चलाने के दिशा र्देश और नियम कानून न हो तब तक वो आजादी आधी होती है।जो बिना संविधान के संभव नही थी। जिस प्रकार से घर को चलाने के लिए घर के बड़े सदस्यों के द्वारा कुछ कायदे कानून बनाए जाते हैं उसी प्रकार से देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता होती है।

1. संविधान बुनियादी नियमों का एक समूह होता है जिससे समाज समन्वय और विश्वास बना रहे ।

2. संविधान,यह स्पष्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की शक्ति किसके पास होगी ।समाज का सर्वेसर्वा कौन होगा? उसके लिए सरकार कैसे बनेगी?

3. संविधान ये निश्चय करता है कि, समाज और उनके नागरिक के क्या अधिकार और दायित्व है और उल्लंघन पर क्या सजा के प्रावधान होंगे? उसका निर्णय कौन लेगा और उनको मनोनीत की क्या प्रक्रिया होगी?

4. संविधान, सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करे जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए उचित परिस्थितियों का निर्माण कर सके ।

भारत का संविधान बनाने के लिए 7 सदस्यों की एक कमेटी का गठन हुआ. जिसमें एन. गोपाल स्वामी अयंगर, ए. कृष्णास्वामी अय्यर, डॉ. बी. आर. अंबेडकर, सैयद मोहम्मद साहदुल्लाह, के. एम मुंशी, बी एल मित्तर, डी. पी. खैतान थे. और डॉ. बी. आर. अंबेडकर इस कमेटी के अध्यक्ष थे.

इन सब ने मिलकर भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरु की. कई मुद्दों पर सबकी राय एक जैसी हुआ करती थी, लेकिन जब कोई मुद्दों पर समान विचार नहीं होता, तो मतदान कराया जाता. जिसके पक्ष में ज्यादा मत होता उस पक्ष को माना जाता था। मतभेद और कड़े संघर्षों के बाद, 2 साल 11 महीने 18 दिन बाद डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और उनकी कमेटी ने इस काम को 24 जनवरी 1950 को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुँचाया ओर भारत को संविधान देकर सही मायनों मे देश को आजाद कराया। और भारत की प्राचीन व्यवस्था को अपनाते हुए देश को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। क्योंकि भारत लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली का जनक माना जाता है।इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात के प्रमाण हैं।प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न थी। प्राचीन काल मे सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है।

लोकतंत्र की शुरुआत भारत के बिहार राज्य के वैशाली से हुई थी।उन दिनों ये प्रांत वैशाली गणराज्य के नाम से जाना जाता था।आज जो लोकतांत्रिक देशों में अपर हाउस और लोअर हाउस की प्रणाली है, जहां सांसद जनता के लिए पॉलिसी बनाते हैं।वहां उस समय छोटी-छोटी समितियां थी, जो गणराज्य के अंतर्गत आने वाली जनता के लिए नियमों और नीतियों को बनाते थे। कई इतिहासकारों का ये भी मानना है कि अमेरिका में जब लोकतंत्र का ताना-बाना बुना जा रहा था, तब वहां के पॉलिसी-मेकर्स के दिमाग में वैशाली के गणतंत्र का मॉड्यूल चल रहा था.


आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश और भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसमें अब 465 अनुच्छेद, तथा 12 अनुसूचियां हैं और ये 22 भागों में विभाजित है। इसके निर्माण के समय मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, जो 22 भागों में बंटे थे और इसमें सिर्फ 8 अनुसूचियां थीं।

जिसमे लोकतंत्र की संपूर्ण व्याख्या की गई है। जैसे

(1) जनता की संपूर्ण और सर्वोच्च भागीदारी, (2) उत्तरदायी सरकार, (3) जनता के अधिकारों एवं स्वतंत्रता की हिफाजत सरकार का कर्तव्य होना, (4) सीमित तथा सांविधानिक सरकार, (5) भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने, सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का वादा, (6) निष्पक्ष तथा आवधिक चुनाव, (7) वयस्क मताधिकार, (8) सरकार के निर्णयों में सलाह, दबाव तथा जनमत द्वारा जनता का हिस्सा, (9) जनता के द्वारा चुनी हुई प्रतिनिधि सरकार, (10) निष्पक्ष न्यायालय, (11) कानून का शासन, (12) विभिन्न राजनीतिक दलों तथा दबाव समूहों की उपस्थिति, (13) सरकार के हाथ में राजनीतिक शक्ति जनता की अमानत के रूप में।संक्षेप में, भारतीय जनता की इच्छा को ही सर्वोपरि माना गया है और ऐसी व्यवस्था की गई जिसमें उनके अधिकार व क‌र्त्तव्य सुरक्षित रह सके।जिसके लिए संविधान मे लोकतान्त्रिक व्यवस्था रूपी छत को सुदृढ़, स्वस्थ एवं परिशुद्ध बनाया गया।और तीन स्तम्भो की व्याख्या की गई है। 

1. विधायिका -कानून बनाना 

2. कार्यपालिका -कानूनों को लागू करना और 3. न्यायपालिका -कानून की व्याख्या करना है। 

4. खबरपालिका

सरकार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की मदद से जनता के बीच में काम करती है। इन्हें देश का आधारभूत स्तम्भ कहते हैं. हालांकि, मीडिया के निर्माण एवं गठन कि कोई लोकतान्त्रिक पद्धति नहीं बल्कि प्रशासनिक पद्धति है।समाज में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होने एवं जनता और सरकार के बीच एक पुलिया का काम करने के कारण इस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा।

भारत के संविधान में सबसे पहली जो बात कही गई है। वह है- भारत, राज्यों का संघ होगा। अर्थात देश के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने और शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये 

भारत संघ की विधायिका को संसद कहा जाता है और राज्यों की विधायिका विधानमंडल/ विधानसभा कहलाती है।इसको विधि यानी के नियम कानून व जन नीतियां बनाने, बदलने व हटाने का अधिकार दिया गया। ये पूर्णतया गैर-निजी, एकल, लोक प्रतिनिधित्व की राष्ट्रीय संस्था या सभा है।इस सभा को ना तो किसी आम अथवा ख़ास द्वारा पंजीकृत कराया जा सकता है और ना ही व्यक्तिगत आधार पर संचालित एवं क्रियान्वित किया जा सकता है। ये एक व्यवस्थित लोकतांत्रिक संरचना है जो राष्ट्रनिहित संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर संभव है किसी कि निजी इच्छा पर नहीं। देश की विधायिका यानी संसद राष्ट्रपति और दो सदन - उच्च सदन राज्यसभा तथा निचला सदन लोकसभा से बनती है।

इसमें प्रतिनिधित्व का अवसर जनता के द्वारा प्रत्यक्ष(लोकसभा) अथवा परोक्ष(राज्यसभा) रूप से निर्वाचित हों कर मिलता है जिन्हें मेंबर ऑफ पार्लियामेंट कहा जाता है।

राज्‍यसभा के लिये अप्रत्‍यक्ष चुनाव होता है,

इस में 245 सदस्‍य होते है उनमें से 12 सदस्‍य राष्‍ट्रपति द्वारा नामजद होते है जिन्‍हें साहित्‍य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के संबंध में विशेष जानकारी या व्‍यावहारिक अनुभव प्राप्‍त हो, और 233 सदस्‍य राज्‍यों और केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं जो अनधिक प्रतिनिधि होंगे।इसमें राज्‍यों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्‍यों का चुनाव एकल हस्‍तांतरणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्‍व प्रणाली के अनुसार राज्‍यों की विधानसभाओं द्वारा निर्धारित तरीके से होता है। राज्‍यसभा को भंग नहीं किया जाता, बल्कि हर दूसरे वर्ष में इसके एक-तिहाई सदस्‍य सेवानिवृत्‍त होते हैं।


लोकसभा जनप्रतिनिधियों की सभा है जिनका चुनाव वयस्‍क (18 साल से ऊपर) मतदान के आधार पर प्रत्‍यक्ष चुनाव द्वारा होता है। संविधान द्वारा परिकल्पित सदन के सदस्‍यों की अधिकतम संख्‍या 552 है (530 सदस्‍य राज्‍यों का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये, 20 केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये और एंग्लो-इंडियन समुदाय के दो सदस्‍य राष्‍ट्रपति द्वारा नामजद किये जाते है यदि उसके विचार से उस समुदाय का सदन में पर्याप्‍त प्रतिनिधित्व नहीं है)। वर्तमान में लोकसभा में 545 सदस्‍य हैं। इनमें से 530 सदस्‍य प्रत्‍यक्ष रूप राज्‍यों से चुने गए हैं और 13 केंद्रशासित क्षेत्रों से, जब‍कि दो को एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये राष्‍ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। लोकसभा का कार्यकाल इसकी पहली बैठक की तारीख से पाँच वर्ष का होता है, जब तक कि इसे पहले भंग न किया जाए।

वहीं राज्यों में विधानसभा के गठन का प्रस्ताव किया। इसके साथ ही लोकसभा के संचालन और गरिमा बनाए रखने के लिये लोकसभा अध्यक्ष और राज्यों में विधानसभा अध्यक्ष के पद का प्रावधान किया। जो संसद की गरिमा को बनाये रखने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है

और वो चुने हुए सदस्य अपने निर्वाचकों के प्रति संवैधानिक रूप से उत्तरदायी होते है।यही लोकतंत्र का पहला स्तंभ विधायिका है जो कि कानून बनाने का काम करती है लोगों द्वारा चुने गए महत्वपूर्ण व्यक्ति विधायिका के रूप में कानूनों का निर्माण करते हैं तथा पूरी जिम्मेवारी लेते हैं कि जो कानून वे बना रहे हैं वह हर तरह से जनता के हित में हो तथा किसी भी समुदाय का शोषण करने वाला न हो। यह कानून शासक व प्रजा दोनों के लिए मान्य होता हैं।


भारतीय संविधान या लोकतंत्र का दूसरा स्तंभ कार्यपालिका है।कार्यपालिका सरकार का कार्यकारी अंग है।

जो विधायिका द्वारा बनाये गए कानून और नीतियों को देश की जनता तक पहुँचाने का कार्य करती है। 

कार्यपालिका संगठन दो तरह का होता है संघीय और राष्ट्रपति शासन प्रणाली।हमारे संविधान निर्माताओ ने ग्रेट ब्रिटेन की संघीय संगठन को चुना जिसमे सरकार (प्रधानमंत्री के नेतृत्व में) एक मंत्रिपरिषद् चलाती है जो सामूहिक रूप से विधायिका के आगे जवाबदेह होती है। राज्य का प्रमुख नाम-मात्र का कार्यपालक होता है जिसके नाम से मंत्रिपरिषद् शासन करती है। भारत में राष्ट्रपति व ग्रेट ब्रिटेन में रानी नाम-मात्र के ही राज्य प्रमुख हैं। दूसरे प्रकार का लोकतांत्रिक मॉडल राष्ट्रपति शासन प्रणाली है, जैसा कि अमेरिका में है। वहाँ शक्तियों का बंटवारा कार्यपालिकाविधायिका-संबंध का आधार है। वास्तविक कार्यपालक राष्ट्रपति होता है। वह न तो विधायिका का सदस्य होता है न विधायिका उसे हटा सकती है। उसका कार्यकाल निश्चित होता है।

कार्यपालिका का सदस्य होने के व्यवस्थापिका का सदस्य होना अनिवार्य है अथवा लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित होना अनिवार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए लोक महत्त्व कि आवश्यकताओं को समझना एवं उनको उपलब्ध कराना, लागू कराना, व्यवस्थापिका से पास विधेयक को कानून के रूप लागू कराना, राष्ट्र प्रबंधन जैसी चीजें कार्यपालिका के मूल कर्तव्य में निहित होती हैं एवं कार्यपालिका अपने कर्तव्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति शत-प्रतिशत उत्तरदायी होती है! “लोकतंत्र के प्रथम स्तम्भ के प्रति उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता ही कार्यपालिका के द्वितीय स्तम्भ होने कि पुष्टि करता है ”कार्यपालिका के तीन अंग है

राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्रिमंडल।

संविधान के अनुसार कार्यपालिका ओर विधायिका में शक्तियो या कार्यों का विभाजन   केन्द्र सरकार ( भारत ) तथा राज्य सरकारों के  मध्य हुआ लेकिन लोकतंत्र के तृतीय स्तम्भ न्यायपालिका की कार्य एवं संरचना पद्धति थोड़ी सी भिन्न है, सैद्धांतिक रूप से यह पूर्णतया लोकतान्त्रिक ढांचे को मजबूत बनाने एव संवैधानिक संरक्षण का कार्य करती है कार्यपालिका द्वारा लाये गए विधेयक को व्यवस्थापिका से पारित होने के पश्चात न्यायपालिका उस विधेयक कि संवैधानिकता कि जाँच करने के साथ ही आवश्यकतानुसार उस कानून कि व्याख्या भी करती है। न्यायपालिका द्वारा किया गया यह कार्य ही “न्यायिक पुनराविलोकन” कहलाता और यही न्यायपालिका कि सबसे बड़ी शक्ति है जो व्यवस्थापिका को भी काफी हद तक नियंत्रित कर संतुलित लोकतंत्र कि स्थापना में विशेष दायित्व का निर्वहन करती है। अगर न्यायपालिका को लगता है कि उक्त विधेयक असंवैधानिक है तो उसे निरस्त भी कर सकती है। संविधान के संरक्षण का दायित्व भी न्यापालिका में निहित है।

भारतीय न्यायपालिका का संगठन शंकु की  आकृति का है जिसमें शिखर पर  उच्चतम या सर्वोच्च न्यायालय उसके नीचे उच्च न्यायालय   तथा उच्च  न्यायालय के नीचे अधीनस्थ  न्यायालय ( जिला   न्यायालय )  विभिन्न  जिलो में स्थापित किये गये हैं।जो आम कानून (कॉमन लॉ) पर आधारित प्रणाली है। यह प्रणाली अंग्रेजों ने अपने शासन काल के समय बनाई थी। इस प्रणाली को 'आम कानून व्यवस्था' के नाम से जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं।इनसे यह साफ़ होता है कि संविधान के मूल स्वरुप के संरक्षण का विशेष दायित्व भी न्यायपालिका के कन्धों पर है एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति पूर्णतया उत्तरदायी है। 

देश में कानून-व्यवस्था और एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण के लिए न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।


पत्रकारिता जिसे मीडिया भी कहा जाता है को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में दर्जा मिला है। मीडिया जो कि लिखित, मौखिक या दृश्य किसी भी रूप में हो सकती है जो जनता को जानकारी देतीहै। मीडिया का कार्य एक Watchdog की तरह होता है जो जनता और सरकार के मध्य सामन्जस्य स्थापित करती है तथा सरकार के अच्छे बुरे सभी कार्यों को जनता के समक्ष रखती है । आजादी के आंदोलन मे पत्रकारिता का एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसने देशवासियो को जगाया और अंग्रेजों के नाक में दम कर अंग्रेजो को देश छोड़ने पर मजबूर किया। 

मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना।लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे।यह चौथा स्तंभ भी पूरी निष्ठा व जिम्मेवारी से काम करे इसकी जिम्मेवारी जनता की बनती है कि जनता अपने विवेक से मीडिया द्वारा दी गई जानकारी का सही प्रयोग करे। क्योंकि

“मीडिया” में लोक उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता बिलकुल नहीं है। मीडिया भी एक पेशा है और पत्रकार एक पेशेवर से ज्यादा कुछ भी नहीं है जैसे – टीचर, डॉक्टर। इसके निर्माण एवं गठन कि कोई लोकतान्त्रिक पद्धति नहीं बल्कि प्रशासनिक पद्धति है। इसके गैर निजी होने का तो सवाल करना ही बेमानी है क्योंकि आज का हर तीसरा पूंजीपति अखबार, पत्रिका, चैनल में निवेश करने में ज्यादा उत्सुक है और इसकी परिशुद्धता का आकलन इसी से किया जा सकता है। जिसके कारण इसकी निष्पक्षता और संविधान के चौथे स्तंभ के होने पर भी सवाल उठते है।

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