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भौर भई लेखिका- निवेदिता मुकुल सक्सेना

बचपन मे याद की कविता 

"उठो लाल अब आंखे खोलो ,पानी लाई मुह धौ लो"
ऐसा सुन्दर समय ना खो मेरे प्यारे अब मत सोवो

 समझे तो सिर्फ जगाने की कविता ओर गहराई से जाने तो भुत से  भविष्य को अवगत करता व वर्तमान मे कर्मो की और जागरुक करती पंक्तियाँ। दिन भर  कार्यक्षेत्र मे रहने के कारण अलसुबह से घरेलू काम काज शुरु हो जाते है ऐसे मे बच्चो को उठाना सम्भव नही हो पाता सब अपने अनुसार आलर्म लगाकर या आराम से उठते लेकिन जब भी मोका मिलता अपने बेटे को इन्ही पंक्तियो को सुनाते हुये अवश्य उठाना अच्छा लगता हैं।

         हर पल निकलता जा रहा जो लौट कर नही आयेगा निश्चित ही हम आगे की अधिकता से सोचते है चिंतन करते है ओर सम्भवत: भूत को लेकर पूर्वाग्रह से पीडीत भी रहते हैं, ओर ये ही बाते हमारे संघर्षों की सीढ़ी के कई पायदान बढा देती है। क्योंकि हम बार बार उन्ही दर्द भरी बातो को याद कर वर्तमान कार्यो को करते रहते है जो मानी बात हैं कि दर्द की बाते कार्य की क्षमता को घटा देती हैं बिलकुल वेसे ही जैसे -"एक ग्रहणी दुखी मन से गुस्से मे परिवार के सदस्यो के लिये खाना बनायेगी तो उस खाने के कण कण मे वही भाव उत्पन्न हो जायेंगे ओर वही सोच ओर खाना वैसा वातावरण प्रत्यक्ष रुप से हमारे सामने प्रकट होंगे।"

   बरहाल, 2019 व 20 की कोरोना त्रासदी को एक जो अभी बीता नही बहुत कुछ सिखाकर जा रहा । शायद यही कि  भौतिकवाद की इस अती से आज सांस तक लेना दुश्वार  कर गया। ये सत्य हैं की रोग का जब तक निदान ना हो तब तक ईलाज कैसे होगा ओर अगर गहराई से विचार करे तो ईलाज कही ओर नही स्वयं मे मौजुद हैं । वैसे ही जैसे "दृश्य आसमानी है, ग्रहण भी दिखता नही "। 

        जमीनी स्तर को देखते हुये बात करे तो जर्रा जर्रा अपना अस्तित्व धुँध रहा। हर घड़ी , वर्तमान संघर्षों को देख रही और भविष्य को टटोल रही। अन्तरमन की गहराई बार बार कह रही रूक पहले देख तो ले हाथ का काम अधुरा है उसे पुर्ण तो कर वरना हर कार्य का परिणाम ना होकर जीरो पर आ जायेगा वापस हम वही आ जायेंगे जहा थे। 

       रात का अन्धेरा बाहर निकलने नही देता लेकिन  निंद्रा युक्त अन्तर्मन को खोजने तो देता हैं। वैसे संघर्ष चाहे कोरोना का हो या देश ,राजनीति ,परिवार समाज का स्वयं को आंकलन करने पर मजबुर करता ही हैं।

     विगत कई वर्षो से चल रहे आन्दोलन और धरने अतिशयोक्ति नही वरन याद दिलाते है बचपन की जब दादा दादी या मम्मी पापा बाजार या कही जाते ओर हमे नही ले जाते तो दोनो हाथो से हम उनका रास्ता रोक देते ओर कहते की " हम भी जायेंगे नही तो जाने नही देंगे " फिर हमे मानने की विभिन्न्ं प्रयास होते की जैसे तैसे मान जाए तब कही जाकर अगली बार ले जायेंगे ऐसे कमिटमेंट होते साथ ही एक दो रुपये भी मिल जाते ओर हम खुश हो जाते वैसा ही कुछ लग रहा। इन सब धरनों, आँदोलन से क्या पुर्ण समाधान निक्लेगा या  क्या दबाव या उँची आवाज भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत मे स्वच्छता ला पायेगी या फिर "एक सायलेंट जोन " बन जायेगा जैसे बेवजह "सी ए ए "के विरोध मे हुआ या अन्य जो चल रहे है अगर भ्रस्टाचार को खत्म करना है तो जड से उस रोग को मिटाने की ताकत होना जरुरी हैं। 

       आन्दोलन या धरने आज की स्थितियो मे हल नही नेगेटिविटी को दुर करने का वरन ये वह सिलसिला हैं कार्यक्षेत्र से जुडी प्रगति मे गति अवरोध उदपन्न करता है। जो स्वयं के साथ देश के लिये भी बाधक है। 

     फिलहाल, एक चांद देखने के लिये बादल का हटना जरुरी हैं क्योंकि ये वही हैं जिसके कारण आसमान सुन्दर दिखता है वही तारे अन्यत्र बिखरे मोती समान आसमन को रात को सुन्दर सज्जित कर  धरती पर कुछ रोशनी की छटा बिखेर देते  है। ये तो प्रकृति का दिया अनुपम उपहार है । 

  जो बीता वर्ष वो खराब नही था सिखाता गया खुद का वजुद ,करा दी खुद से खुद की पहचान हम कितने कहा बेचारे थे क्या ऐसे ही ऐसे ही बेचारे रहेंगे या उठकर सार्थकता का कर्म युद्ध खुद से करेँगे । क्या दूसरो की खुशामदी मे जिन्दगी का सफर निकाल देंगे या एक अकेले वो प्रगति का  परचम  लहरा सकेंगे ।

    बात यू नही की चांद तारो की तारीफो के पुल बाँधे जा रहे ये ईशारा है उस ओर जब अन्धेरे के बाद  भौर का होना निश्चित है । एक सुनहरी दस्तक भारत को अंको के नये साल को खटखटाते हुये, अंको की हर भौर को, एक नया सुखद एहसास राहत की सांसो में बदल दे। 

       "ये दृश्य आसमानी हैं ग्रहण भी दिखता नही, गहरे अंधकार के बाद ,क्योकि भौर जो भई हैं ,,,,,।

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