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।।113।।बोधकथा। (श्रीराम नवमी पर) ...........!! *श्रीराम: शरण मम*।। ........... ।।श्रीरामकिंकर वचनामृत।।


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    *देहाभिमान रूपी शरीर ही समुद्र है।*

     *जब शरीर का समुद्र पार करें, तब* 

        *तो भगवान्‌ की शरण में जायँँ,*

      *नहीं तो यह शरीर ही ऐसा केन्द्र है,*

   *जो भगवान्‌ के पास जाने से रोकता है।*

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     अपने आपको केवल शरीर मान करके शरीर के धर्म का ही पालन करना, यह तो अपूर्णता है। विभीषणजी के सामने यह समस्या है । इसका बड़ा व्यंग्यात्मक संकेत उस समय आता है, जब भगवान्‌ समुद्र के इस पार अपनी बानर सेना के साथ विराजमान हैं, रावण के द्वारा चरण प्रहार से अपमानित होकर वे भगवान्‌ की शरण में तो आ गये, पर अभी भी पूर्व संस्कारों से मुक्त न हो पाने के कारण उन्होंने संयोगवश अपना परिचय दशानन के भाई के रुप में दिया , विभीषण जी के इसी भूल को यदि सुग्रीव चाहते तो भगवान्‌ के समक्ष उनका परिचय सुधारकर दे सकते थे, क्योंकि वे श्री हनुमानजी के द्वारा विभीषण और श्री हनुमानजी की मैत्री और सद्भाव की कथा प्रसंग से परिचित थे, पर वे भी अपने संशालु स्वभाव से ऊपर नहीं उठ सके। यह व्यक्ति के अन्दर एक स्वाभाविक कमजोरी होती है कि वह स्वयं भी उसी मार्ग से गुजरा होने पर भी दूसरे के शरणागति में यत्किंचित बाधक बनता है, क्योंकि वह अपने को स्वामिभक्त के नाम पर इस मनोभावना से ग्रस्त रहता है कि मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई इतना सरल और शरणागत कैसे हो सकता है, और उन्होंने भगवान्‌ के समक्ष सीधे कह दिया कि -- 

       *आवा मिलन दसानन भाई।* ४/४२/४

        यदि वे दशानन के भाई के स्थान पर हनुमानजी का भाई कह देते तो यह विलम्ब नहीं लगता। विभीषणजी भूल गये कि मैं वस्तुतः अब दशानन का नहीं हनुमानजी का भाई हूँ। 

      एक संस्मरण मुझे याद आ गया कि कहीं रामलीला में जो व्यक्ति रावण का अभिनय करता था, वह संयोगवश उस दिन नहीं आया तो रावण की उस दिन की भूमिका को किसी अन्य को दे दिया गया और जब लंका की राजसभा में अंगद के द्वारा धमकाया गया तो वह बोल पड़ा कि मैं तो अमुक हलवाई हूँ। हठात् उसके मुँह से यही निकला।

      जब श्रीराम ने सुग्रीव की बात सुनी तो हनुमानजी की ओर देखा कि तुम भी तो विभीषण को भाई कहकर आये हो। अपने भाई की कुछ तो चिन्ता करो। उस बेचारे से तो भूल हो गयी कि अपने को रावण का भाई बता दिया, पर तुम भी तो उसे निमंत्रण देकर आये हो। गोस्वामीजी ने लिखा कि भगवान्‌ राम ने हनुमानजी से कहा कि --

       *हिय बिहसि कहत हनुमानसों।*

       *सुमति साधु सुचि सुहृद बिभीषन*

       *बूझि परत अनुमानसों।*(गीता०-५/३३/१) 

     ये दो दृष्टियाँ हैं। सुग्रीव कहते हैं कि रावण का भाई है, पर भगवान्‌ कहते हैं कि यह हनुमानजी का भाई है। भगवान्‌ ने हनुमानजी से पूछा कि तुम तो लंका में गये थे, तुम बताओ विभीषण कैसा है ? हनुमानजी क्या बोलें ? यदि सुग्रीव की बात काट दें तो सुग्रीव नाराज हो जायेंगे और यदि विभीषण को बुरा बता दें तो सुग्रीव प्रसन्न हो जायेंगे, पर श्रीराम कहेंगे कि तुमने अच्छा भाई बनाया !

      हनुमानजी ने कहा कि प्रभो ! आपका प्रश्न ठीक नहीं है। क्योंकि शरणागति औषधालय है कि न्यायालय ? अभिप्राय यह है कि यह मत पूछिए कि कैसे हैं ? जैसे भी हैं स्वीकार कीजिए। भगवान्‌ ने देरी इसलिए लगायी कि विभीषण जब तक शरीर के घेरे में घिरे हुए थे, तब तक स्वीकार नहीं किया। इसकी और भी सुक्ष्म व्याख्याएँ हैं। समुद्र को पार करके जब आये, तब श्रीराम ने स्वीकार किया। *देहाभिमान रूपी शरीर ही समुद्र है। जब शरीर का समुद्र पार करें, तब तो भगवान्‌ की शरण में जायँँ, नहीं तो यह शरीर ही ऐसा केन्द्र है, जो भगवान्‌ के पास जाने से रोकता है। भक्त का नाता तो भाव का नाता है।*

        श्री सीताजी का जन्म सुनयनाजी के गर्भ से न होकर पृथ्वी से हुआ। इसमें सूत्र क्या है ? *शरीर से जन्म लेकर जो व्यक्ति आये, वह तो शरीरवादी है। सीताजी हैं भक्ति और भक्ति का नाता तो भाव से है।* शरीर से जन्म न होने पर भी जब सुनयनाजी उनको बेटी मान सकती हैं तो सच्ची भावना है। अगर यह भाव न करें तो इसका अभिप्राय है कि शरीर की बेटी ही बेटी है, भाव की बेटी, बेटी नहीं है। भगवान्‌ राम दशरथ और कौसल्या के यहाँ जनम लेते हैं, पर राम शबरी को भी माँ कहकर पुकारते हैं। न तो शबरी के गर्भ से जन्म हुआ, न उनकी जाति है, न परिवार है, फिर भी किस नाते से माँ कहकर पुकारा ? भगवान्‌ ने बताया कि मैं शरीर का नाता नहीं मानता हूँ -- 

     *कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।*

     *मानउँ एक भगति कर नाता।।* ३/३४/४ 

      भक्ति का नाता मानता हूँ। देखिए ! इसमें कितनी बड़ी सुविधा है ? यदि भगवान्‌ से शरीर का नाता जोड़ना चाहें तो न जाने भगवान्‌ कब मिलेंगे ? पर भाव में पूरी स्वतंत्रता है, आप जो नाता जोड़ना चाहें, भाव में जोड़ सकते हैं। आप विचार करके देख लीजिए ! श्रीकृष्ण की दो माताएँ हैं - यशोदा और देवकी। दोनों में से किसको अधिक महत्त्व मिला ? यशोदाजी को। देवकी का भी बड़ा महत्त्व है, सम्मान है, लेकिन सारा चरित्र तो यशोदा के यहाँ होता है। 

       यशोदा के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म नहीं हुआ, लेकिन फिर भी पुत्र मानकर कितना प्यार किया ? भगवान्‌ का अभिप्राय था कि *शरीर के नाते से जो सम्बन्ध जोड़ना चाहेगा, वह तो पता नहीं कब जोड़ पायेगा, परन्तु जो भाव के नाते से नाता जोड़ना चाहे, वह तो बस एक ही क्षण में, जब हम चाहें और जो हम चाहें, जोड़ सकते हैं। शरीर के नाते में तो परतंत्रता है, पर भाव के नाते में तो पूरी स्वतंत्रता है कि चाहे भगवान्‌ के बेटे बन जायँ, चाहे भगवान्‌ के बाप बन जायँ। शरीर में स्वतंत्रता नहीं है, यह तो भाव में स्वतंत्रता है।* सीताजी विदेह की कन्या हैं, विदेह माने जो देह से ऊपर हो। इसका अर्थ है कि अगर महाराज जनक शरीर से ऊपर न उठे हुए होते तो सीताजी पृथ्वी से निकली हैं, ऐसा तो मान सकते थे, परन्तु ये मेरी 'पुत्री' हैं, यह कैसे मान सकते थे ? 

       जनकजी इतने बड़े विचारक हैं कि उन्होंने सीताजी में पुत्री की भावना बनायी और सुनयनाजी तो मूर्तिमती भावना हैं और जनकजी विचार हैं और उनसे भक्तिरूपा सीताजी का जन्म हुआ। बहुत बढ़िया बात है। जनकपुर में सूखा पड़ गया, जनकजी ने हल चलाया तो सीताजी निकलीं , जनकपुर ज्ञानियों का नगर था तो बहुत ज्ञान में भी कभी-कभी सूखा पड़ जाता है। जब तक भक्ति न आ जाय, तब तक उसमें रस का संचार नहीं होता। सीताजी निकलीं तो जनक ने पुत्री मानकर गोंद में उठा लिया। शरीर के नाते न तो जनक पिता हैं और न सुनयना माता हैं। लेकिन सच्चे अर्थों में ऐसी दिव्य भावना है कि उसके कारण पुत्री के रूप में सीता को पाया। यही सूत्र आपको सर्वत्र मिलेगा।

       कैकेयी और सुमित्रा में अन्तर क्या है ? कैकेयीजी श्रीराम को बहुत चाहती हैं, यह बात प्रसिद्ध थी, लेकिन सुमित्रा के प्रेम का उतना प्रचार नहीं था। इसलिए एक पुस्तक में सुमित्राजी के संदर्भ में मैंने एक दृष्टांत दिया है कि सुमित्राजी तो अयोध्या की रजनीगन्धा हैं, जिसकी सुगन्ध केवल रात में प्रकट होती है, वैसे ही जब राम वन जाने लगे, तब सुमित्रा के रामप्रेम का प्राकट्य हुआ | इसके पहले तो कैकेयी के रामप्रेम की बड़ी चर्चा थी। कैकेयीजी में क्या कमी थी कि जब रात हुई, तब अँधेरे में सुगन्ध नहीं फेंकी और सुमित्राजी में क्या विशेषता थी ? इसका सूत्र यह है कि वह कमी कैकेयी के सामने आ गयी, जिस कमी को बाद में प्रभु ने मिटा दी। मंथरा ने जब रामराज्य का समाचार दिया तो कैकेयीजी प्रसन्न होकर बोलीं कि --

      *राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली।*

      *देउँ मागु मन भावत आली।।* २/१४/४ 

      कितनी ऊंची भावना है कि सौत के बेटे के राजतिलक का समाचार सुनकर इतनी प्रसन्न हो रही हैं, पर मंथरा तो बड़ी पैनी बुद्धि वाली थी। सोचा कि देखें, भीतर क्या है ? पूछा, क्या आप राम को इतना चाहती हैं ? कैकेयी ने कहा -- 

       *जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू।*

        *होहूँ राम सिय पूत पुतोहू।।* २/१४/७ 

           ऊपर से देखने पर यह ऊँची भावना लगती है, परन्तु मंथरा समझ गयी कि कैकेयी की कमजोरी क्या है ? --

    *कौसल्या सम सब महतारी।*

    *रामहिं सहज सुभायँ पिआरी।।*

    *मो पर करहिं सनेह बिसेषी।*

    *मैं करि प्रीति परीछा देखी।।* २/१४/५-६

      कैकेयी के मुँह से सच्चाई निकल गयी कि मैंने एक दिन परीक्षा लेकर देख लिया। मंथरा प्रसन्न हो गयी, क्योंकि परीक्षा वही करता है, जिसको सन्देह होता है। यदि एक बार विद्यार्थी परीक्षा में पास हो जाय तो यह जरूरी नहीं कि हर बार पास ही होगा। पहले आपको अधिक चाहते हों, पर अब तो सब बदल गया हैं। अब तो अपनी माँ कौसल्या को ही अधिक चाहते हैं। कैकेयीजी की कमजोरी यह है कि वे चाहती हैं कि श्रीराम सब माताओं को बराबर चाहें, पर मुझे अधिक महत्त्व दें। जब राम आपको अधिक चाहते हैं तो फिर अगले जन्म में उनको बेटा क्यों बनाना चाहती हैं ? बात स्पष्ट है कि चाहे कुछ भी हो, राम को लोग कौसल्या का बेटा ही बतायेंगे, मेरा बेटा कोई नहीं कहेगा। शरीर को केन्द्र बनाने की दुर्बलता कैकेयी में भरी हुई है। श्रीराम तो कैकेयी को माँ नहीं, बल्कि जननी कहकर पुकारते हैं। जननी का अर्थ है, जिसके गर्भ से जन्म हुआ है। श्रीराम कैकेयीजी से कहते हैं-      

       *सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी।* २/४०/७ 

      कैकेयी को सुनकर आश्चर्य हुआ। बालक के मन की बात बिना बोले ही माँ जान लेती है, कल से मेरे मन में था कि छोटे भाई को राज्य मिलना चाहिए, लेकिन मेरे मन की बात किसी ने नहीं जानी, केवल तुमने जान ली, इसलिए असली 'जननी' तो तुम हो। शरीर के नाते से जननी कौसल्या हैं, पर भगवान्‌ श्रीराम कहते हैं कि नहीं-नहीं, मेरी जननी तो आप हैं, परन्तु कैकेयी की दुर्बलता यह है कि वह शरीर से ऊपर नहीं उठ पायी।

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।। मनेन्दु पहारिया।।

    30/03/2023

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