।।112।। बोध कथा। 🌺💐 क्रोध पर करुणा की विजय 💐🌺


जुए में हारने पर शर्त के अनुसार पांडवों ने  12 वर्ष का वनवास तथा 1 वर्ष का अज्ञातवास पूरा किया। किंतु कौरवों ने उनका राज वापस करना तो दूर 5 गांव देना भी स्वीकार नहीं किया। 

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युद्ध ना हो इसलिए भगवान श्री कृष्ण शांति हेतु संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाना चाहते थे, पर द्रोपदी ने विरोध किया -'केशव!मेरे यह केस दु:शासन के रक्त से सिंचित होने पर ही बधेंगे। यदि मेरे पति सक्षम नहीं है, तो मेरे अपमान का प्रतिशोध अभिमन्यु सहित मेरे 5 महाबली पुत्र लेंगे। संधि तथा धर्म की बातें अब सहन नहीं होती कहते-कहते द्रोपदी फूट-फूट कर रोने लगी।"


 श्री कृष्ण ने गंभीर स्वर में कहा- कृष्णे वही होगा जो तुम चाहती हो, मेरी बात मिथ्या नहीं होगी।

 कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर पहुंचे परंतु संधि वार्ता निष्फल रही। युद्ध अनिवार्य हो गया। और महाभारत युद्ध हुआ।

 युद्ध के अंतिम 18 वे दिन, भीमसेन ने गदा प्रहार से दुर्योधन की जंघा तोड़ दी। इस पर भी भीमसेन का क्रोध शांत नहीं हुआ और वे उसे कपटी कहकर बार-बार उसका सिर अपने पैर से दबाते- रगड़ते रहे।


 तत्पश्चात श्री कृष्ण पांडवों को लेकर कौरव शिविर को अधिकृत करने चल दिए। शिविर पहुंचकर सात्यकी श्री कृष्ण, और पांडवों ने रात्रि विश्राम शिविर के बाहर ही ओमवती नदी के किनारे किया।


 वहां कौरव पक्ष से युद्ध में बच्चे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा दुर्योधन को देखने आए। उसकी दशा देखकर अश्वत्थामा को बहुत क्रोध आया और उसने पांचालों का वध करने की प्रतिज्ञा की।

 दुर्योधन ने कृपाचार्य से जल मंगवा कर अश्वत्थामा का सेनापति पद पर अभिषेक कराया। 

दुर्योधन के समीप से तीनों कौरव शिविर की ओर चल दिए लेकिन  कौरव शिविर पर अधिकार करने आ रहे पांडवों को आता देख  भय से भाग खड़े हुए।


 बहुत दूर वन में जाकर एक वटवृक्ष के नीचे तीनों ने रात्रि व्यतीत करने का निश्चय किया। कृपाचार्य और कृतवर्मा तो सो गए, पर क्रूर अश्वत्थामा जागता रहा। 

उसने देखा कि उस बट वृक्ष पर सो रहे बहुत से कौवों को एक उलूक आकर मार रहा था। यह दृश्य देखकर अश्वत्थामा उत्तेजित हो गया और उसने कृपाचार्य तथा कृतवर्मा को जगा कर कहा कि, उसने उल्लू के द्वारा शिक्षा ली है कि "रात्रि में असावधान सोते हुए पांडवों और पांचालों पर आक्रमण करके उन्हें मार डालना चाहिए।"


 कृपाचार्य ने उसे धर्म और नीति की बातें समझाईं पर उसने प्रतिवाद किया और अकेले ही जाने को तैयार हो गया। अंततः कृपाचार्य और कृतवर्मा को सेनापति का अनुगमन करना पड़ा।


 पांडवों के शिविर में सो रहे प्राणियों का जीवन काल समाप्त होने को है यह जानकर,साक्षात भगवान महाकाल रूद्र शिविर द्वार पर खड़े रहे। अश्वत्थामा ने महाकाल रूद्र से युद्ध किया। युद्ध में परास्त होकर वह अग्नि में अपनी बलि देने लगा, इससे प्रसन्न होकर भगवान महाकाल ने उसे एक तलवार दी और स्वयं उसके शरीर में रात्रि भर के लिए आविष्ट हो गए। 


रुद्रा वेश में निसर्ग क्रूर अश्वत्थामा ने कृपाचार्य और कृतवर्मा को शिविर द्वार पर नियुक्त किया कि, वे शिविर से बाहर भागने वालों का वध कर दें और स्वयं शिविर में चला गया। 

पहले उसने धृष्टद्युम्न को जगा कर बुरी तरह मारा। द्रौपदी के पांचों पुत्र प्रतिविंध्य, सुतसोम, शतानीक,  श्रुतकर्मा, और श्रुत्कीर्ति ने उस पर बांण वर्षा की, उसे मारने का अथक प्रयास किया, पर अश्वत्थामा के सामने असहाय रहे। और मारे गए। 


अश्वत्थामा ने शिखंडी आदि वीरों और राजा विराट की सेना का संहार किया। द्रुपद के पुत्र, पुत्रौं, संबंधियों, को मार दिया। उसने पांडवों की सेना के हजारों वीर,घोड़े, हाथी, तक को मार दिया। शिविर के बाहर खड़े कृपाचार्य और कृतवर्मा ने शिविर में 3 ओर से आग लगा दी और भागने वालों को मारने लगे। एकमात्र धृष्टद्युम्न का सारथी किसी प्रकार कृतवर्मा की दृष्टि बचाकर निकल भागा। 


पौ फटते ही अश्वत्थामा शिविर से निकला और दुर्योधन को महासहांर का समाचार सुनाया। यह सुनकर दुर्योधन के प्राण शरीर से विदा हो गए। कृपाचार्य हस्तिनापुर अपने घर आ गए और कृतवर्मा द्वारका चले गए।

 

श्री कृष्ण,सात्यकि और पांडवों  से भयभीत अश्वत्थामा अपने रथ से जितनी दूर भाग सकता था भागता चला गया। अश्वत्थामा से बचकर शिविर से भागे धृष्टद्युम्न के सारथी ने रोते चिल्लाते धर्मराज युधिष्ठिर से पुकार की- महाराज! अश्वत्थामा ने क्रूर पशु की भांति सब को सोते समय मार दिया।


 भगवान श्री कृष्ण के साथ पांडव शिविर में आए। सात्यकी से दुखद समाचार पाकर द्रौपदी एवं समस्त स्त्रियां भी रोती, क्रंदन करती हुई शिविर में आ गई। सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति द्रौपदी की थी। उनके पांचों पुत्र मार दिए गए थे। वह बार-बार उनके शवों के समीप मूर्छित होकर गिरती थी। 


भीमसेन अर्जुन युधिष्ठिर सभी द्रोपदी को आश्वासन दे रहे थे। सहसा वह सिंहनी के समान दहाड़ी,  "मेरे पुत्रों को मारने वाला जीवित है और आप सब मुझे शोक त्याग का उपदेश करते हैं।" 

अब वह जीवित नहीं रहेगा, क्रोध से कांपते भीमसेन ने गदा उठाई, मैं उसे मार दूंगा,चाहे वह पाताल में जाकर छिपा हो। और उसी समय रथ पर बैठकर अश्वत्थामा के रथ चक्र के चिन्हों का अनुगमन करते चल पड़े।


 अर्जुन ने प्रतिज्ञा की- 'देवी! जब तक मैं तुम्हारे समीप द्रोंणपुत्र का सिर ला दूंगा, तब तुम पुत्रों की अन्तयेष्टि का स्नान करना। 

भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि अश्वत्थामा भीमसेन पर अमोघ ब्रह्मास्त्र चलाने में एक क्षण भी नहीं सोचेगा और भीमसेन अग्नि भस्म हो सकता है। अर्जुन के पास वह ब्रह्मास्त्र है और दूसरा कोई अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का प्रतिकार नहीं कर सकता। 


भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को साथ लेकर भीमसेन की रक्षा के लिए चल पड़े। सचमुच अश्वत्थामा ने भीम और अर्जुन को आते देखकर अमोघ ब्रह्मास्त्र का संधान किया। भयभीत अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने सावधान किया कि वह भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करें और फिर दोनों को लौटा ले। अर्जुन ने यही किया और भगवान श्री कृष्ण की सन्निधि ने इन दोनों को बचाया।


 अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को अपने ब्रह्मास्त्र से शांत करके अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ लिया। उसे अपने उत्तरीय से रथ पर बांधकर वे अपने शिविर की ओर वापस चल दिए।

अर्जुन,द्रौपदी और युधिष्ठिर के सम्मुख अपराधी के रूप में अश्वत्थामा को खड़ा कर दिया और कहा- यह है तुम्हारे पुत्रों का हत्यारा!


 श्री हीन अश्वत्थामा को लज्जा से सिर झुकाए देखना द्रौपदी को असहनीय हो गया और उनके हृदय में करुणा उमड़ पड़ी। वे बोली-"यह आचार्य पुत्र हैं,इन्हें छोड़ दीजिए, छोड़ दीजिए। यह ब्राह्मण है,पुत्र के रूप में स्वयं द्रोणाचार्य ही हैं, जिनसे आपने संपूर्ण अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। मैं माता हूं, पुत्रों के मारे जाने की मुझे मर्मांतक पीड़ा है, मैं नहीं चाहती कि ऐसी ही पीड़ा इनकी माता जी को भी हो। मेरे पुत्र तो अब जीवित नहीं हो सकते। इनका बंधन शीघ्र खोल दीजिए। यह हम सभी के सम्माननीय हैं।"


 महनीया के पुत्र मारे थे मैंने, यह सोचकर अश्वत्थामा का हृदय विदीर्ण हो गया। नेत्रों से अश्रु गिरने लगे। 

भीमसेन के नेत्र अंगार हो रहे थे। वह गरज रहे थे- नहीं, नहीं इस नराधम को, इस पापी को क्षमा नहीं किया जा सकता।

 भगवान श्री कृष्ण,धर्मराज युधिष्ठिर और वहां पर उपस्थित सभी लोग द्रौपदी की करुणा से द्रवित हो गए और उनकी यह आवाज चारों ओर गूंजती रही-" धन्य हो पंचाली! धन्य हो!"

  भीमसेन की गरजती हुई आवाज किसी को सुनाई नहीं दी। द्रौपदी का यह क्षमादान चिर स्मरणीय है।

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 ।। मनेन्दु पहारिया।।

    27/03/2023

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