।।105।। बोधकथा। 🌺🏵💐 मर्यादा पुरुष राम 💐🏵🌺


एक दिन श्री राम* से *भरत भैया* ने कहा , "एक बात पूछूँ" ? *भईया* !! 

     *माता कैकई* ने आपको वनवास दिलाने के लिए मँथरा के साथ मिल कर जो 'षड्यंत्र' किया था , *क्या वह राजद्रोह नहीं था ?*

    उनके *'षड्यंत्र'* के कारण....एक ओर राज्य के *भावी महाराज* और *महारानी* को (14) चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा....तो दूसरी ओर *पिता महाराज* की दु:खद मृत्यु हुई ।  ऐसे 'षड्यंत्र' के लिए फिर आपने *माता कैकई* को *दण्ड* क्यों नहीं दिया ?


*राम मुस्कुराए*…....बोले,  "जानते हो *भरत* !!  किसी कुल में एक *चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र* जन्म ले ले , तो उसका जीवन उसके *असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों* का प्रायश्चित कर देता है । जिस *"माँ"* ने तुम *जैसे - महात्मा* को जन्म दिया हो , उसे *दण्ड* कैसे दिया जा सकता है ..*भरत ?"*


(भरत सन्तुष्ट नहीं हुए)

कहा , "यह तो *मोह* है भईया ; और "राजा_ का_ दण्डविधान" *मोह* से मुक्त होता है । कृपया *एक राजा की तरह* उत्तर दीजिये कि आपने *माता* को *दण्ड* क्यों नहीं दिया ?.......समझिए कि आपसे यह *प्रश्न* आपका अनुज नहीं , *अयोध्या का एक सामान्य नागरिक* कर रहा है ।


    (राम गम्भीर हो गए)......कुछ क्षण के मौन के बाद कहा , "अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई *दण्ड न देना* ही इस सृष्टि का *'कठोरतम दण्ड'* है भरत !!”


    *माता कैकई* ने अपनी एक भूल का बड़ा - कठोर *दण्ड* भोगा है । वनवास के (14) चौदह वर्षों में *हम - चारों भाई* अपने - अपने स्थान से परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं ;  पर *माता कैकई* हर क्षण मरती रही हैं । 


    (अपनी एक भूल के कारण)  उन्होंने अपना *पति खोया* , अपने *चार - बेटे खोए* , अपना समस्त *सुख - सम्मान खोया* , फिर भी वे उस "अपराध - बोध" से कभी *मुक्त न हो* सकीं । *वनवास समाप्त हो गया*....... तो परिवार के शेष - सदस्य *प्रसन्न और सुखी* हो गए  ;  पर *वे* कभी प्रसन्न न हो सकीं । *कोई 'राजा'  किसी "स्त्री" को इससे कठोर - दण्ड क्या दे सकता है  ?*


      मैं तो सदैव यह सोचकर *दुखी हो जाता हूँ* कि  "मेरे कारण (अनायास ही)  *मेरी माँ* को इतना *कठोर - दण्ड* भोगना पड़ा ।"


       *राम के नेत्रों में जल उतर* आया था , और *भरत - आदि भाई* मौन हो गए थे ।


     (राम ने फिर कहा)....... "और उनकी भूल को *अपराध समझना* ही क्यों भरत !!......[यदि मेरा वनवास न हुआ होता] ,  तो संसार *'भरत' और 'लक्ष्मण'  जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृ - प्रेम* को कैसे देख पाता ?  (मैंने) तो केवल अपने *माता-पिता की आज्ञा का पालन* मात्र किया था , पर (तुम - दोनों) ने तो *मेरे - स्नेह में* (14) चौदह वर्ष का *"वनवास"* भोगा । *"वनवास"* न होता तो यह संसार सीखता कैसे.......कि *भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है ?"* भरत के प्रश्न *मौन* हो गए थे । (वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए) !!


✒️ *राम कोई नारा नहीं हैं । राम एक   आचरण हैं , एक चरित्र हैं , एक जीवन* "जीने की शैली" *हैं ।*


  🙏 जय सीताराम 🙏


* सादर*


।। मनेन्दु पहारिया।।

  26/12/2022

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