सुप्रसिद्ध वेदांती 'पंडित वाचस्पति मिश्र' वेदांत मीमांसा ग्रंथ के प्रणयन में व्यस्त थे।
व्यस्तता भी ऐसी,कि ना दिन का पता, ना रात का पता, शरीर निर्वाह के लिए शौच, स्नान,भजन और भोजन आदि कार्य अभ्यास बस हो जाते थे। ऐसा लगता था मानो इन कार्यों में भी उनकी रुचि ना थी।
उन्हें इतना भी ध्यान नहीं था, कि समय पर कौन भोजन की थाली परोस कर सामने रख जाता है, जूठे पात्र कौन उठाकर ले जाता है।कुटिया में उनके साथ छाया की तरह लग कर कौन अपनी अमूल्य सेवाएं दे रहा है!
ग्रंथ का उपसंहार लिखा जा रहा था। दीपक का प्रकाश कुछ धीमा पड़ा,उसकी लौ ठीक करने के लिए एक हाथ बढ़ा और ठीक करने के उपक्रम में, प्रकाश बढ़ने के स्थान पर अंधेरा हो गया। अंधकार के साथ ग्रंथ का समापन भी हो गया।
पिछले वर्षों में उनके साहित्यिक जीवन में ऐसी छोटी बड़ी कितनी ही बाधाएं आई होंगी, पर उनकी तन्मयता ने उसका आभास नहीं होने दिया। स्वाध्याय,चिंतन और लेखन, बस इस क्रम में ही उनके जीवन को अंतिम सोपान पर लाकर खड़ा कर दिया था।
जिस हाथ के स्पर्श से दीपक बुझा था, दूसरे ही क्षण उसी के स्पर्श से कुटिया में प्रकाश हो गया।
दीपक के प्रकाश में उन्हें एक स्त्री दिखाई दी ।
अपने मूल विषय से हटकर कुछ सोचने का अवसर आया,वह पूछ ही बैठे- तुम कौन हो? तुम्हारे यहां आने का उद्देश्य क्या है ?
"मैं पिछले 40 वर्षो से इसी कुटिया में निवास कर रही हूं। मैं हूं आपकी सेविका, नारी ने नम्रता से उत्तर दिया।"
मेरी सेविका? पंडित जी चौके!
"आश्चर्यचकित होने की क्या बात है! कन्या का पिता हाथ पीले करके जिसको सौंप देता है,वह उसकी सेविका ही तो कहलाती है?"
"आप विवाह मंडप की बात शायद भूल गए। यज्ञ की वेदी पर बैठे-बैठे भी तो आप गहन चिंतन में तन्मय थे, विवाह की शुभ बेला में वर-वधू जब भावी जीवन की रंगीनी में तैरने के स्वप्न संजोते हैं, वहां आप तो अपने हाथ में कुछ कागजों को लेकर विचारों में खोए हुए थे।"
" इस कुटिया मैं आपको अपने लेखन कार्य से ही इतना अवकाश नहीं मिला, जो मेरे सुख-दुख के बारे कुछ पूछते। मैंने भी आपकी साधना में व्यवधान डालना उचित न समझा। आज दीपक की बाती बढ़ाते समय जो आपको असुविधा हुई है उसके लिए मैं क्षमा चाहती हूं।"
"अब तक आपकी सेवा के पश्चात जो थोड़ा बहुत समय मिलता था,उसमें पड़ोस के बच्चों को कुछ लिखना-पढ़ना सिखा देती थी, बालिकाओं को गायन और सीने-पिरोने का अभ्यास करा देती थी। आपके पास तो जीवकोपार्जन के लिए समय ही ना था?"
जिस कार्य को मैंने अपने हाथ में लिया था, वह आज समाप्त हुआ। अब तुम यह तो बताओ कि मुझसे चाहती क्या हो? पंडित जी ने बड़े गंभीर स्वर में पूछा!
"कभी चाहती थी कि गोद हरी भरी रहे। कम से कम वृद्धावस्था के लिए कोई सहारा हो,पर जीवन की वह अवस्था तो कब की बीत चुकी! अब तो केश श्वेत हो गए, शरीर जर्जर हो गया, विवाह के पूर्व के रंगीन सपने विवाह के तुरंत बाद ही समाप्त हो गए, चौथे पन में पाने को रह ही क्या गया है? बस आपकी सेवा को ही जीवन का लक्ष्य मानकर संतुष्ट हूं।"
तुम्हारा नाम क्या है?
"भामती" ।
वाचस्पति मिश्र ने लेखनी उठाई, मसिपात्र में डूबा कर, ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर उसका नाम लिख दिया "भामती" और उसकी ओर देखते हुए बोले -"संसार में जब तक वेदांत की चर्चा होती रहेगी, तब तक इस ग्रंथ के सहारे तुम्हारा नाम अमर बना रहेगा। इसी को तुम अपना वंश चलना समझना।
।। मनेन्दु पहारिया।।
03/02/2022
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