मरुतदेव क्रुद्ध होकर बोले- ओसकणो तुम्हें हमारा प्रतिरोध करते भय नहीं लगा? नष्ट करके रख देंगे तुम्हें! नहीं तो रास्ता छोड़कर अलग हो जाओ।
ओसकण हाथ जोड़कर बोले- महापुरुष!जब तक आप हैं, तब तक हम नष्ट कैसे हो सकते हैं? हमारा तो जन्म ही आपसे हुआ है। इतना कहने पर भी मरुत देव का क्रोध ना गया। बात कुछ नहीं थी, अहंकार मात्र था, तो ऐसे शांत कहां होता?
मरुत देव चले, वेग से आक्रमण किया। ओसकंण झरकर भूमि में जा गिरे, पर वायु देव की अंतःशीलता को छूकर दूर्वादलों में अन्य ओसकण छलकने लगे। मरुत ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे अपनी पराजय पर लज्जा आई। उमड़ घुमड़ कर सब तरफ से प्रयत्न किया उसने, पर ओसकण कम ना हुए।
आकाश ने यह देखकर कहा- व्यर्थ क्यों खींझते हो पवन देव! बलिदान की शक्ति ही कुछ ऐसी है, कि एक नष्ट होता है तो पीछे हजार तैयार हो जाते हैं। ऐसा ना होता, तो संसार में नेकी, धर्म, और भलाई, जिंदा कैसे रह पाते?
मरुत ने हार मान ली और तब से ओसकणों को नीचा दिखाना बंद कर दिया।
।। मनेन्दु पहारिया।।
16/10/2022