।।083।। बोध कथा। "नरेंद्र" का "स्वामी विवेकानंद" होना ही पुरुषार्थ है।

 #पुरुषार्थ 

1884 में 'नरेंद्रनाथ दत्त' के सर से पिता का साया उठ गया। उस समय वो बी०ए० पास करके बीo एलo की तैयारी कर रहे थे वो। बड़ा परिवार था तो उनके भरण पोषण की जिम्मेदारी नरेंद्र के कंधों पर आ गई। उधर बकायेदार अलग परेशान करने लगे। नरेंद्र फटे हुए वस्त्र और नंगे पांव कलकत्ता की गलियों में नौकरी की तलाश में भटकने लगे ।


सवेरे उठ जाते और नौकरी की तलाश में निकल जाते।

बहुत भटकने के बाद किसी कार्यालय में एक अस्थायी नौकरी मिली पर नाकाफी था। यंत्रणा ने तोड़ दिया तो रामकृष्ण देव के पास पहुंच गये। रामकृष्ण परमहंस ने उन मां काली के पास भेजा तो तीन प्रयास के बाबजूद वो माँ से सिवाय ज्ञान और वैराग्य के कुछ माँग नहीं सके तो रामकृष्ण ने उनसे कहा, अब जाओ अर्थ के लिए तुम परेशान न हो। मैंने माँ से कह दिया है कि तेरे परिवार की चिंता अब वही करे।


ऐसी ही विषम परिस्थितियों में इंसान का सर्वश्रेष्ठ निखर कर आता है। दुख ने उनकी परीक्षा ली और उसी दुःख ने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद में बदल दिया।


इसी बीच अवसर मिला तो शिकागो जाने का मन बना लिया। 16 जुलाई, 1893 को कनाडा और फ़िर वहां से शिकागो पहुंचे। उस नगर में एक भी अपना नही। फिर पता चला धर्मसभा सितंबर में होगी। उतने दिन का खर्च नहीं था। कई बार रेलवे स्टेशन पर सोना पड़ता। कार्यक्रम हेतु कार्यालय की खोज में निकले तो झिझकी मिलती। काला आदमी कहकर लोग दरवाजे बंद कर लेते।


फिर जब शिकागो धर्म सभा मे गरजे तो उस गर्जना ने वहां के पाषाण, संकीर्ण और मशीन हृदयों में विश्व बंधुत्व का भाव जागृत हो गया। 


लोग जो उन्हें देखकर गेट बंद कर लेते थे वही लोग उनको मेहमान बनाने को व्याकुल हो गए। 


भारतीय संस्कृति को नरेंद्र को विश्व क्षितिज पर स्थापित कर दिया।


जीवन के किसी भी क्षण में निराश न होइए.... कमजोर न पड़िये... पुरुषार्थ को जगाइए।


"नरेंद्र" का "स्वामी विवेकानंद" होना ही पुरुषार्थ है।

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