कुरु वंश के एकमात्र वंशज सुभद्रा कुमार अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में आए परीक्षित को कौन नहीं जानता, जिसकी रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उत्तरा की पुकार पर उसके गर्भ में प्रवेश कर गए और गर्भस्थ शिशु को चतुर्भुज रूप में शंख, चक्र, गदा पद्म, के साथ दर्शन देते हुए अपनी गदा को गर्भ के चारों ओर तेजी से घुमाते हुए अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को नष्ट करते रहे।
बड़े होने पर पांडवों ने राजा परीक्षित को राज्य सौंप कर हिमालय की ओर प्रस्थान किया।
राजा परीक्षित ने एक दिन दिग्विजय करते समय 'शूद्र कलि' को गोरूपी पृथ्वी देवी और धर्म स्वरूप वृषभ को प्रताड़ित करते हुए देखा। उन्होंने तलवार खींचकर उसे मारना चाहा, किंतु याचना करने पर उसे रहने के लिए जुआ, शराब,वैश्या, हिंसा, और स्वर्ण यह 5 स्थान दे दिए।
इन पांचों से प्रत्येक कल्याण कामी पुरुष को सावधान रहना चाहिए, अन्यथा उसका पतन हो सकता है।
एक दिन राजा परीक्षित आखेट करते हुए, भूख प्यास से व्याकुल, शमीक ऋषि के आश्रम पहुंचे और उनसे जल मांगा। ध्यान मग्न होने के कारण ऋषि ने कोई उत्तर नहीं दिया। परीक्षित स्वर्ण का मुकुट पहने हुए थे जिसमें कलि ने प्रवेश कर लिया था और राजा की बुद्धि पलटा दी थी।
राजा ने ऋषि द्वारा अपना अपमान समझकर,अपने धनुष की नोक से एक मरा हुआ सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और राजधानी वापस लौट आए।
शमीक ऋषि के तेजस्वी पुत्र श्रृंगी ऋषि ने जब यह सब जाना, तो राजा परीक्षित को शाप दे दिया, कि आज के सातवे दिन तक्षक नाग राजा को डस लेगा और उसकी मृत्यु हो जाएगी।
राज महल में आकर मुकुट उतारने के पश्चात, राजा को अपनी भूल का स्मरण हुआ और वे अपने द्वारा किए गए अपराध का पश्चाताप करने लगे। इसी समय उन्हें शाप का पता भी लग गया।
उन्हें तनिक भी दुख नहीं हुआ। अपने पुत्र जन्मेजय को राज्य का भार सौंप कर वे गंगा तट पर जा बैठे और 7 दिनों तक निर्जल व्रत का निश्चय किया।
वहां अनेक ऋषि मुनि आए। राजा परीक्षित ने उनसे अपने कल्याण का उपाय पूछा।
उसी समय घूमते हुए व्यास पुत्र शुकदेव मुनि भी वहां आ पहुंचे। परीक्षित ने उनका पूजन किया और कहा- आप योगियों के भी परम गुरु हैं, इसीलिए मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरूप और साधन के संबंध में प्रश्न कर रहा हूं।
राजा परीक्षित ने कहा भगवान जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है उनको क्या करना चाहिए? और साथ ही यह भी बतलाइए कि मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिए? वह किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरणऔर किस का भजन करें? तथा किस का त्याग करें?
इन्हीं प्रश्नों का उत्तर शुकदेव मुनि ने 7 दिनों में श्रीमद्भागवत के रूप में राजा परीक्षित को दिया।
अंत में राजा परीक्षित ने अपना चित्त भगवान में लगा दिया। सातवे दिन तक्षक नाग ने उन्हें डस लिया। राजर्षि परीक्षित तक्षक के डसने से पहले ही ब्रह्म में स्थित हो चुके थे। तक्षक के विष की आग से उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया।
दृष्टांत से हमें शिक्षा मिलती है कि राजा परीक्षित ने मात्र 7 दिन में अपना कल्याण कर लिया, क्योंकि उन्हें पता था कि अब सांसारिक मोह करना ठीक नहीं, ईश्वर में स्थित होना ही अंतिम विकल्प है। और उनको श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने वाले मुनि शुकदेव जी भी वीत रागी थे, जिन्हें वासना, धन,मान, से कोई मोह नहीं था, वे केवल परीक्षित के कल्याण के लिए प्रभु की कथा उन्हें सुना रहे थे।
हमारी मृत्यु भी इन्हीं 7 दिनों में से एक दिन होनी है, जिसका हमें ज्ञान नहीं है। अतः मनुष्य मात्र को अपना कल्याण करने में सदैव सचेत रहना चाहिए।
आज गली-गली, गांव-गांव में श्रीमद् भागवत की कथा होती है, किंतु ना तो साधक मनोयोग से श्रवण करता है, और ना ही सुनाने वाले वीतरागी होकर प्रभु की कथा सुनाते हैं।
यह विचारणीय है।
।। मनेन्दु पहारिया।।
16/11/2022