।।056।। बोध कथा। 🌺💐 देहि मे सुखदां कन्याम 💐🌺


अत्रि का कोमल गात 25 वर्ष तक गुरुकुल में ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्या अध्ययन करने के साथ निखर पड़ा। सुघड़ देहयष्टि,उन्नत वक्ष स्थल, और देदीप्यमान ललाट। अत्रि तब तक ऋषि नहीं बने थे, पर 25 वर्ष की संयमित जीवन साधना और तपस्या के फलस्वरूप उनके मुख्य मंडल पर अपूर्व कांति खिल उठी थी।


 यह तब की बात है, जब शिक्षा का स्वरूप आज जैसा नहीं था। छोटी आयु में ही बालक योग्य और चरित्रनिष्ठ कुलपतियों के आश्रम में पहुंचा दिए जाते थे। यहां उन्हें अक्षर ज्ञान से लेकर वेदांग तक का शिक्षण दिया जाता था, जिससे वहां से निकलने से पूर्व, स्नातकों के मन और विचार परिपक्व हो जाते थे। कठोर संयम और सफल जीवन के कारण उनका स्वास्थ्य और आरोग्य तो अपने आप बुलंद हो जाता था। इस तरह शरीर और मन दोनों से स्वस्थ होकर जब भी गृहस्थ में प्रवेश करते थे तब का पारिवारिक आनंद ही कुछ और होता था। 


नियमानुसार अत्रि ने आचार्य को प्रणाम कर विदा मांगी। आचार्य ने तिलक करते हुए कहा- "वत्स! अब तुम गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर स्वस्थ और तेजस्वी संतान को जन्म दो, जिससे अपने पितामह ऋषियों द्वारा प्रणीत, वर्णाश्रम संस्कृति अविच्छिन्न रूप से चलती रहे।"

 अत्री ने कहा- आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव!


 यह कहकर वे वहां से विदा हो गए। संपत्ति के नाम पर गुरुकुल में अर्जित साधना शक्ति, आत्मानुभूति, और प्रमाण पत्र के अतिरिक्त उनके पास कुछ भी नहीं था। माता-पिता स्वयं तपस्वी जीवन यापन करते थे, इसीलिए तब पुत्रों के लिए धन छोड़ने की परंपरा नहीं थी। प्रयत्न यह किया जाता था कि बालक स्वस्थ स्वावलंबी, परिश्रम शील और उद्योगी बने ऐसे युवक, कैसी भी परिस्थिति में अपने लिए उन्नति का मार्ग ढूंढ निकाला करते थे। वह उन्नति चिरस्थाई हुआ करती थी।


 अत्रि,आश्रम से चलकर एक गांव में पहुंचे। आगे का मार्ग बहुत बीहड़ और हिंसक जीव जंतुओं से भरा हुआ था, सो अत्रि रात को उसी गांव में एक सद गृहस्थ के घर रुक गए।

 ग्रहस्थ ने उन्हें ब्रह्मचारी वेश में देखकर उनकी आवभगत की और भोजन के लिए आमंत्रित किया।

 अत्रि ने जब जान लिया कि, इस परिवार के सभी सदस्य ब्रह्म संध्या का पालन करते हैं, किसी में कोई दुर्गुण नहीं है, तो उन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया।


 भोजन उपरांत अत्रि ने ग्रहस्थ को प्रणाम कर प्रार्थना की- "देहि मे सुखदां कन्याम" - 'अपनी सुखदा कन्या मुझे दीजिए, जिससे मैं अपना घर बसा सकूं।'

 उन दिनों वर ही कन्या ढूंढने जाते थे, कन्याओं को वर तलाश नहीं करने पड़ते थे।

 उन दिनों नर से नारी की गरिमा अधिक थी। ग्रस्हथ ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। अत्रि के प्रमाण पत्र देखे और वंश की श्रेष्ठता पूछी और वे जब इस पर संतुष्ट हो गए कि वह सब प्रकार से योग्य है, तो उन्होंने पवित्र अग्नि की साक्षी में अपनी कन्या का संबंध अत्रि के साथ कर दिया। 


अत्रि के पास तो कुछ था नहीं, इसीलिए गृहस्थी संचालन के लिए आरंभिक सहयोग के रूप में अन्न,वस्त्र, बिस्तर,थोड़ा धन, और गाय भी दी।

 छोटी सी, किंतु सब आवश्यक वस्तुओं से पूर्ण गृहस्थी लेकर अत्रि अपने घर पधारे और सुख पूर्वक रहने लगे।


 इन्हीं अत्रि और अनुसूया के द्वारा दत्तात्रेय जैसी तेजस्वी संतान को जन्म मिला। भगवान को भी एक दिन इनके सामने झुकना पड़ा था। पर आज वह सात्विक प्रवृत्तियां कहां रही? विवाह सौदेबाजी के खेल हो गए हैं, वैसी ही गृहस्तियाँ जमती और निकृष्ट नागरिक पैदा करती हैं।


।। मनेन्दु पहारिया।।

    03/08/2022

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