।।018।। बोधकथा। ।विद्या संपन्न साधकों के समक्ष सिद्धियां तुच्छ हैं।


  योगी चांगदेव की आयु 1400 वर्ष थी। उन्होंने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी तो उनके मन में यह विचार आया कि क्यों ना उनसे सद्भावना पूर्ण पत्र व्यवहार किया जाए । 

पत्र लिखने के लिए योगी चांगदेव ने एक कोरा कागज अपने हाथ में लिया ही था,कि उनके समक्ष यह दुविधा उत्पन्न हुई कि भला किस संबोधन के साथ इस पत्र को लिखा जाए।

          दीर्घकाल तक योग को साधने व सिद्धियों के ज्ञाता योगी चांगदेव के स्वयं के अभिमान ने उन्हें कहा,कि संत ज्ञानेश्वर तो मात्र 16 वर्ष के हैं, तो उन्हें पूज्य कैसे लिखें?

इतने में भीतर से विवेक की धीमी आवाज ने इतने बड़े संत को चिरंजीव लिखे जाने पर भी आपत्ति जताई। 

असमंजस की अवस्था में खिन्न हो,चांगदेव ने उन्हें बिना कुछ लिखे ही कोरा कागज पत्र के रूप में संत ज्ञानेश्वर को भेज दिया। 

         बहन मुक्ताबाई ने योगी चांगदेव के पत्र के प्रत्युत्तर में लिखा -"आपकी आयु 1400 वर्ष हो गई है,फिर भी आप कोरे के कोरे ही रहे।"

 संत ज्ञानेश्वर की ओर से आए इस पत्र को पढ़कर,चांगदेव को लगा कि भूल हुई है,अतः वे उनसे मिलने निकल पड़े । 

सिद्धि बल के प्रदर्शन के लिए, योगी चांगदेव ने शेर पर सवारी की और सांप का चाबुक बनाया। चांगदेव के इस रूप को देखकर,ज्ञानेश्वर समझ गए योगी का अभिमान अभी गया नहीं है। योगी चांगदेव की अगवानी के लिए वे जिस दीवार पर बैठे थे उसे ही चलने की आज्ञा दे डाली। 

दीवार को चलता देख,चांगदेव को बोध हुआ, कि जानवरों को बस में करने वाले से,जड़ पदार्थों को बस में करने वाला श्रेष्ठ है। 

         चांगदेव ने अपनी आयु और सिद्धियों का अहंकार छोड़ा और संत ज्ञानेश्वर के शिष्य बन गए। 

"अधिक आयु होने पर भी, विद्या संपन्न अल्पायु साधकों के समक्ष,सिद्धियां तुच्छ हैं। 

।। मनेन्दु पहारिया।।

  01/ 09/ 2022

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