विष्णु भगवान ने लक्ष्मी जी से कहा मनुष्य को संसार की सुव्यवस्था का काम सौंपे बहुत दिन हो गए, देखने की इच्छा है कि वह किस स्थिति में है।
लक्ष्मी जी ने कहा- "मनुष्य का बुरा हाल है, उसने कर्तव्य को तिलांजलि दे दी है, लोभ और मोह को छोड़कर किसी और में उसकी कोई रुचि नहीं रही। उसके पास जाना व्यर्थ है, सुधरेगा तो है नहीं, उल्टे आपको भी जाल में फंसाने का प्रयत्न करेगा।"
विष्णु अड़ गए और जाने की तैयारी कर ली। लक्ष्मी जी ने व्यंग कर कहा- "मनुष्य को सुधारे बिना लौटना मत।"
धरती पर भगवान का आगमन सुनकर लोग उनसे मिलने पहुंचे। कर्तव्य धर्म की चर्चा कोई सुनने को तैयार ना था, सभी एक ही रट लगाए हुए थे- "हमारी मनोकामना पूरी कर दो।"
भगवान ने बार-बार समझाया- "आप लोगों की आवश्यकता कम है और साधन अधिक, फिर निर्वाह में क्या और क्यों कमी पढ़नी चाहिए?" आप लोग जब साधन संपन्न बनाकर भेजे गए हैं, तो लक्ष्य, कर्तव्य की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? इस अनुदान को सार्थक क्यों नहीं बनाते?
सभी ने भगवान की बात अनसुनी कर दी और मनोकामनाएं पूरी करने का आग्रह करने लगे। भगवान झल्ला गए और मनुष्य की धूर्तता से चिढ़कर कहीं ऐसे स्थान को तलाश करने लगे, जहां कोई मनुष्य पहुंच ही ना सके। वैकुंठ तो जाना नहीं था, क्योंकि लक्ष्मी जी की बात याद थी।
छिपने का स्थान उन्हें हिमालय का बद्रीनाथ शिखर दिखा। तो चुपके से वहीं खिसक गए। भक्तजनों की चतुराई क्या कम थी! उन्होंने स्थान तलाश कर लिया और कठिन रास्ता पार करके वहां भी जा पहुंचे।
भगवान ने समझा शायद वहां भले लोग आते होंगे और ज्ञान, ध्यान की चर्चा करेंगे। पर कुछ एक से मिलने के बाद ही उन्हें निराशा हो गई। पैसा, बेटा की मांग के अतिरिक्त यहां सिद्धि और स्वर्ग की कामना और जुड़ गई। सभी मांगते थे। कुछ करने की बात सुनने को कोई तैयार ना था।
खींझे हुए भगवान अब समुद्र के बीच सुनसान टापू पर द्वारिका में रहने लगे। भक्त जनों को तो ना भगवान की परेशानी का ख्याल था ना, अपनी बेइज्जती का। वे किसी भी कीमत पर स्वार्थ सिद्धि के लिए आतुर थे। पता वहां का भी लगा लिया और नाव पर सवार होकर द्वारिका टापू जा पहुंचे। माँग वही पुरानी।
विष्णु भगवान को चिड़ ज्यादा बढ़ती जा रही थी। वे मनुष्यों से सर्वदा के लिए दूर होना चाहते थे। सोचते थे "ना इनको अपना मुंह दिखाएं, ना इनका देखें।"
पर वैसा स्थान सूझ ही नहीं रहा था। इस असमंजस की घड़ी में नारद जी आ पहुंचे। विष्णु भगवान ने हैरानी से पूछा- "देवर्षि! ऐसा स्थान बताइए, जहां में छिप कर, रहूँ तो इसी लोक में, पर मनुष्य को पता ना चले।"
नारद जी ने विचार कर भगवान के कान में कुछ कहा। भगवान सहमत हो गए और उस दिन से आज तक वह वहीं रह रहे हैं। लोग जहां-तहां भटकते फिरते हैं पर उस स्थान को खोज नहीं पाते। मनुष्य को ईश्वर खोज की चेष्ठा में भटकते देखकर भगवान मुस्कुराते और मजा लेते रहते हैं।
उनके छिपने के स्थान का नाम है "मनुष्य का अपना ह्रदय" जो उसे सूझ ही नहीं रहा!
" कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे बन माहि"
जैसे हरि भीतर बसें,हम ढूंढें जग माही ।।
।। मनेन्दु पहारिया।।
01/02/2022

